बदलना तो पड़ेगा बाऊ जी
रवि अरोड़ा
दो महीने पहले परिवार सहित मुंबई में था । उसी दौरान एक दिन दोपहर के समय हम लोग बांद्रा के बैंड स्टैंड पर थे । सामने समुंद्र था और हमारे ठीक पीछे था फ़िल्मस्टार शाहरुख़ खान का बंगला । अब शाहरुख़ खान का बंगला जहाँ हो वहाँ भीड़ तो होगी ही । यूँ भी प्राकृतिक रूप से इतना ख़ूबसूरत नज़ारा था कि मुंबई घूमने आये लोग भी बड़ी संख्या में वहाँ थे । अचानक मन में एक कप कॉफी की इच्छा हुई । निगाह दौड़ाई तो सामने ही एक बड़ा सा रेस्टोरेंट दिखाई दिया, नाम था- सी साइड कैफ़े । मुख्य मार्ग पर कम से सौ फ़ुट फ़्रंट होगा उस रेस्टोरेंट का और पिछली तरफ़ भी ठीक उतना ही सी फ़ेसिंग गलियारा था । सोचा चलो यहीं चलते हैं । फिर सोचा कि पता नहीं कितनी भीड़ होगी वहाँ और हम जैसे केवल एक कप कॉफी के ग्राहक को लिफ़्ट देंगे भी या नहीं ? ख़ैर रेस्टोरेंट के भीतर जाने का ही निर्णय लिया । मगर यह क्या ? पूरा रेस्टोरेंट ख़ाली था । हैरानी से मैंने वेटर से पूछा कि क्या रेस्टोरेंट आज बंद है ? इस पर वेटर ने दुगनी हैरानी दिखाई कि बंद क्यों होगा, खुला तो है । मगर थोड़ी ही देर पता चल गया कि रेस्टोरेंट ख़ाली क्यों पड़ा है । रेस्टोरेंट वालों ने सी फ़ेसिंग ग्लास एसे ढका हुआ था कि जैसे यहाँ से समुन्दर किसी ग्राहक ने देख लिया तो शायद उनका कुछ नुक़सान हो जाएगा । हमें बीस मिनट तक किसी ने पानी भी नहीं पूछा और ढेरों आवाज़ लगाने पर एक वेटर आया और हमारा ओर्डर लेकर उसने हमें एक पर्ची पकड़ा दी और कहा कि पहले काउंटर पर जाकर साठ रुपये जमा करवा दो । हमारे पास कुछ खाने का सामान था जो बड़ी बेहूदगी से यह कह कर बाहर फिंकवा दिया कि बाहर से लाया गया खाने का सामान यहाँ वर्जित है । नाराज़गी में जब पूछा कि रेस्टोरेंट का मालिक कौन है तो वेटर ने एक कोने की ओर इशारा किया जहाँ लगभग अस्सी साल का एक पंजाबी टाइप बूढ़ा बैठा । लगभग पचास करोड़ की उस प्रोपर्टी का मालिक होने का ग़रूर उसके चेहरे से साफ़ झलक रहा था और इतनी महँगी जगह होने के बावजूद रेस्टोरेंट के न चलने का असंतोष उस पर कहीं भी नहीं था ।
ग़ुस्से में हमने वहाँ कॉफी न पीने का निर्णय लिया और नया ठीया ढूंढ़ते हुए आगे बढ़े । तभी एक विदेशी फ़ूड चेन का काउंटर दिखा । बामुश्किल दस फ़ुट की दुकान होगी मगर उसने सड़क घेर कर वहाँ तक ग्राहकों को बैठाने की व्यवस्था की हुई थी । देख कर हैरानी हुई कि वहाँ पाँव रखने की भी जगह नहीं थी मगर हमारे पहुँचते ही एक पढ़ा-लिखा सा वेटर हमारे पास आया और हमें पानी पिला कर मुआफ़ी माँगी कि अभी आपको बैठाने के लिए हमारे पास जगह नहीं है । उस फ़ूड चेन मालिक कौन है यह पूछना फ़िजूल था । क्योंकि वह जो भी था उसकी ग़ैरमौजूदगी में भी उसका सिस्टम काम कर रहा था । बेशक इस प्रोपर्टी की लोकेशन कुछ ख़ास नहीं थी और उस पंजाबी के रेस्टोरेंट की क़ीमत के मुक़ाबले तो दस परसेंट भी शायद न हो मगर उनका प्रोफ़ेशनलिज़्म कमाल का था और यही वजह थी कि वहाँ ग्राहकों की कोई कमी भी नहीं थी ।
चार दिन के मुम्बई प्रवास में ओला और ऊबर टैक्सी सर्विस का भी जम कर लाभ उठाया । ग़ज़ब का कौशल था उनकी सेवाओं में । ऊबर के लिए टैक्सी चला रहे प्रतापगढ़ के विरेंद्र ने बताया कि वह दो सौ रुपये प्रति घंटा कमा लेता है । पहले वह मुम्बई की पुरानी काली-पीली टैक्सी चलाता था मगर तब उसकी कमाई आधी भी नहीं होती थी । ऊबर के साथ जुड़ कर उसने अपना एक छोटा सा घर भी बना लिया है । बक़ौल उसके पूरे मुम्बई में कम से कम बीस हज़ार कारें ओला और ऊबर की सेवा दे रही हैं और सभी को अच्छा ख़ासा मुनाफ़ा हो रहा है । प्रवास के आख़िरी दिन मुम्बई की कुख्यात काली-पीली टैक्सी से भी वास्ता पड़ा । वे आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चलते नज़र आये । आधा दर्जन टैक्सी वालों ने पहले पूछा कहाँ जाना है और फिर बिना कुछ कहे आगे बढ़ गए। आज फ़ुर्सत में बैठा सोच रहा कि कोरोना काल के बाद जब काम धंधे की दोबारा मारामारी होगी तब भी क्या हम अपने उसी पुराने तौर तरीक़ों से काम काज करेंगे या दुनिया से कदम ताल करने के लिए उनसे कुछ प्रोफ़ेशनलिज़्म भी सीखेंगे । अब जब आने वाला वक़्त मुश्किल है और गलाकाट प्रतियोगिता पूरी दुनिया में होगी तब क्या हमें भी बदलना नहीं पड़ेगा ? अब लड़ाई जीतनी है तो बदलना तो पड़ेगा ही बाऊ जी ।