फ़ैशन
रवि अरोड़ा
एक कार्यक्रम में आज शहर के कई पुराने लोग मिले । एसे लोग जिन्हें मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ । दशकों गुज़र गए और वे लोग जवान से वयोवृद्ध हो गए मगर उनका पहनावा आज भी वैसा ही नज़र आया । जो साहब पचास साल पहले फ़र्र की टोपी लगाते थे, वैसी टोपी आज भी उनके सिर पर थी । जो जनाब गए ज़माने में अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहनते थे, उनके बदन पर आज भी कुछ एसा ही था। गोया कुर्ते वाले कुर्ते में और धोती वाले धोती में ही नज़र आए । देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ कि आधी सदी गुज़र गई मगर इनका पहनावा क्यों नहीं बदला ? जबकि उनका पुराना पहनावा अब चलन में भी नहीं है । क्या इतना मुश्किल है नये फ़ैशन को अपनाना ? क्या वाक़ई बहुत कठिन है कपड़ों को लेकर अपनी छवि बदलना ? सवाल बेमानी नहीं है कि जीवन में कुछ नया लाने अथवा नया करने से हम डरते क्यों हैं ? क्या हमारा व्यक्तित्व हमारे कपड़ों की क़ैद में है और हम उसे निर्धारित फ़्रेम से बाहर लाने का साहस नहीं रखते ?
शहर के एक बुज़ुर्ग नेता जी से पारिवारिक सम्बंध हैं । बचपन से उनके घर आना-जाना लगा हुआ है । हाल ही में उनकी पत्नी का देहांत हुआ । लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़ कर गईं माता जी की ख़ास बात यह थी कि उन्हें मैंने कभी नंगे सिर नहीं देखा था । यानि उनके सिर पर दुपट्टा हमेशा रहता था। आख़िरी समय में वे जब अस्पताल में थीं तब भी उनका सिर ढका हुआ था । हालाँकि उनके पति ने टोका भी मगर फिर भी माता जी ने सिर से दुपट्टा हटाना गवारा नहीं किया। मूलतः पंजाब की रहने वाली माता जी जिस इलाक़े से थीं , वहाँ इस्लामिक संस्कृति का प्रभाव था और महिलाओं का सिर पर पल्ला, दुपट्टा अथवा चुन्नी करना फ़ैशन तो नहीं मगर एक रवायत ज़रूर थी । बचपन में मिली इस रवायत को माता जी ने आख़िरी समय तक निभाया । उधर, दादा जी के एक मित्र थे । मूलतः पेशावर के रहने वाले थे और बँटवारे के बाद ग़ाज़ियाबाद आ गए थे । आख़िरी समय तक वे सलवार-कुर्ता और तुर्रे वाली पगड़ी पहनते थे । पता नहीं जीवन भर उन्होंने पठानों वाला वेश क्यों नहीं छोड़ा । कवि नगर निवासी पैंसठ वर्षीय एक एसे व्यक्ति को भी मैं जानता हूँ जो आज भी बेलबॉटम पहनता है और सत्तर के दशक के अमिताभ बच्चन की तरह लम्बे बालों से अपने कान ढक कर रखता है । उसके पैरों में आज भी ऊँची एड़ी वाले सैंडिल नज़र आते हैं । दुनिया बदल गई मगर वह व्यक्ति नहीं बदला और आज भी ख़ुद को उस दौर का मिथुन चक्रवर्ती समझता है । हालाँकि ख़ुद मिथुन चक्रवर्ती अब बदल चुका है ।
नये फ़ैशन के अनुरूप ख़ुद को ढालने का सामाजिक दबाव मैं समझ सकता हूँ । फ़ैशन के अनुरूप मेरी पैंट की मोरी भी कई बार बढ़ी-घटी है । बालों के स्टाइल पर भी नये फ़ैशन के अनुरूप परिवार की सलाह पर निर्णय लेना पड़ता है । बचपन और युवावस्था में यह दबाव कुछ अधिक रहता था । वर्ष 1975-76 यानि आपातकाल के दिनो में यह सर्वविदित सत्य था कि ब्रह्मचारी नाम का शहर कोतवाल लम्बे बालों वाले युवाओं के बाल और चौड़ी मोरी वालों की पेंट काट देता था । मेरे किशोर मन पर फ़ैशन के अनुरूप दिखने का इतना दबाव था कि मैंने और मेरे मित्रों ने डर के कारण शहर की तरफ़ जाना ही छोड़ दिया मगर अपने हुलिये से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं किया । आज जब युवाओं को जगह जगह से कटी-फटी पैंट जींस पहने देखता हूँ तो अपना दौर याद आता है । सही हो अथवा ग़लत मगर नये फ़ैशन को युवाओं को अपनाते देखना स्वाभाविक ही लगता है मगर तब क्या होगा जब ये फटी जींस वाले यही रुक जाएँगे और ज़माना आगे बढ़ जाएगा ? इन फटी जींस वालों का क्या तब भी मेरे जैसा कोई मज़ाक़ उड़ाएगा ? बेशक ये रुके हुए लोग भले आदमी होते हैं समाज के निर्धारित मनदंडों पर ही चलते हैं मगर फिर भी एक शोध तो इस तरह के लोगों पर भी होना चाहिये । दूसरी ओर यह भी तो पता लगना चाहिये कि बदलता फ़ैशन समाज में क्या कोई नई ऊर्जा , नवीन चेतना अथवा कोई बदलाव भी लाता है या फिर यूँ ही पुराने हुलिये के ही बार बार लौटने को हम फ़ैशन समझते हैं ?