फ़ेमनिज़्म

रवि अरोड़ा

हाल ही में अपने एक मित्र के साथ कविनगर सी ब्लॉक मार्केट गया था । एक दुकानदार ने मोहब्बत का मुज़ाहिरा करते हुए चाय मँगा ली और हम लोग दुकान के बाहर ही कुर्सियाँ डाल कर बैठ गए। इसी बीच दो युवतियाँ बड़ी बेचैनी से इधर उधर घूमती नज़र आईं । उन्हें हैरान परेशान देख कर सहायता करने की ग़रज़ से हम उनके पास चले गए । हमें अपने पास आता देख कर दोनो युवतियों ने अंग्रेज़ी में हमें डाँटना शुरू कर दिया और हमारी परवरिश और अच्छे शहरी होने पर ही सवाल चिन्ह लगा दिए । पता चला कि उनकी कार के ठीक पीछे किसी ने अपनी बड़ी सी गाड़ी लगा दी है और इसी के चलते वह अपनी कार निकाल नहीं पा रही हैं । उन्हें लग रहा था कि पीछे खड़ी कार हमारी है ।जब हमने उन्हें बताया कि वह कार हमारी नहीं है और हम तो सिर्फ़ उनकी सहायता करने की ग़रज़ से आए हैं । इस पर भी दोनो युवतियाँ ज़रा सा शर्मिंदा नहीं हुईं । काफ़ी देर तक उन्हें पुनः यूँ ही परेशान खड़ा देख कर हम द्रवित हो गए और हम लोगों ने काफ़ी मशक़्क़त से उनकी गाड़ी आगे-पीछे करके आख़िर निकलवा ही दी मगर यह क्या ? समस्या से निजात पाते ही युवतियों ने अपनी कार की डिग्गी से लोहे की छड़ नुमा कोई चीज़ निकाली और पीछे खड़ी उसी कार का शीशा फोड़ डाला और अपनी कार में बैठ तुरंत फुर्र हो गईं । युवतियों की इस हरकत को हम अवाक् से खड़े देखते ही रह गए ।

वैसे मैं ख़ुद को पक्का फ़ेमनिस्ट मानता हूँ । नारीवादी होने के कई सबूत भी मैं दे सकता हूँ । मगर नारी का यह रूप तो मुझे भी हैरान परेशान कर गया । सहसा मुंशी प्रेमचंद की याद आ गई । अपने कालजयी उपन्यास गोदान में एक जगह वे कहते हैं कि पुरुष में यदि स्त्री के गुण आ जायें तो वह महात्मा हो जाता है और यदि स्त्री में पुरुष के गुण आ जायें तो वह राक्षसी हो जाती है । ज़ाहिर है प्रेमचंद करुणा , प्रेम , दया , ममता , स्नेह और लज्जा जैसे स्त्री के गुणों की महिमा बताना चाह रहे होंगे और यक़ीनन सदैव ताक़त का प्रदर्शन करने में लगे रहने वाले पुरुष के अवगुणों ईर्षा , द्वेष , हिंसा , प्रतिद्वंदता को रेखांकित कर रहे होंगे । प्रेमचंद की बात की पुष्टि मानवता का पूरा इतिहास भी करता है । दुनिया के तमाम युद्ध और फ़साद पुरुष की ही तो देन हैं और इसके उलट स्त्रियाँ पुरुषों के बनाए नियमों का ही अक्षरश पालन करती नज़र आती हैं । शायद यही कारण है कि सभी समाज और धर्म औरतों के दम पर चल रहे हैं । बेशक उन्हें पुरुषों ने शुरू किया मगर स्त्रियों के बिना उनके पल्लवित होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । अपनी सदाशयता की क़ीमत भी स्त्रियों ने चुकाई और लगभग हर धर्म , देश और संस्कृति में स्त्रियों के दमन का पूरा इतिहास है । हालाँकि अब दुनिया बदल रही है और उसी के अनुरूप स्त्रियों की दुनिया भी बदली है । आज एसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ स्त्रियों ने पुरुषों की बराबरी ना की हो । दुनिया की तमाम सफल औरतें चाहे वे किसी भी क्षेत्र से हों , अपने स्त्रेण स्वभाविकता को छोड़े बिना ही आगे बढ़ीं । मगर अब एसा क्या हो रहा है की पुरुषों की बराबरी को स्त्रियाँ पुरुष ही बनती जा रही हैं ? क्या यह बाज़ारवाद का असर है जो स्त्री की क्रय शक्ति बढ़ाने को उसे पुरुष ही बनाने पर तुला है ? यदि एसा ही है तो वह पूरी तरह इसी दिशा में क्यों नहीं आगे बढ़ता ? क्यों शृंगार के क्षेत्र में अपने फ़ैसले उलट देता है और सुंदर दिखने की स्त्रियों की स्वभाविक चाह को भुनाने लग जाता है ?

भारतीय मनीषियों में युगों पहले अर्धनारीश्वर की कल्पना की थी । इसी के अनुरूप ईश्वर को आधा स्त्री और आधा पुरुष माना । ना कोई ज़रा सा भी कम और ना ही ज़रा सा कोई ज़्यादा । ईश्वर के तमाम रूप भी अर्धांगनी के साथ बताए गए हैं । उमा-महेश्वर , सीता-राम , लक्ष्मी-जगदीश और राधा कृष्ण जैसे सभी रूपों में ईश्वर अकेला नहीं है । कोई किसी का अतिक्रमण नहीं करता । ना देवी देवता का और ना ही देवता देवी का । मगर अब स्त्रियों में एसी आपाधापी एसी मची है कि बराबरी की चाह में स्त्री पुरुष ही हुए जा रही है जबकि पुरुष अपना पुरुषत्व छोड़ने को क़तई तैयार नहीं । सच कहूँ तो अपने मन में प्रेमचंद की बात एसी छपी है कि इच्छा होती है कि दुनिया के सभी पुरुष स्त्री जैसे हो जायें । शायद तब ही सही मायने में दुनिया ममतामई हो पाए । मगर यहाँ तो गाड़ियों के शीशे फोड़ती स्त्रियों दुनिया को कही और ही पहुँचाने को बेताब दिख रही हैं ।

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