फतेहगढ़ चूड़ियां की लम्बी सड़क
रवि अरोड़ा
हाल ही में गुरदास पुर जिले के कस्बा फतेहगढ़ चूड़ियां से गुजरना हुआ । एक दुकान पर कस्बे का नाम पढ़ते ही इस शहर के बाबत सुनी तमाम बातें स्मृतियों की दीवार लांघ कर बाहर आने को बेताब हो गईं। दरअसल यह कस्बा अपने गौरवशाली इतिहास के साथ साथ इसलिए भी खास है कि बस इसे पार करते ही पाकिस्तान की सीमा शुरू हो जाती है। बटवारे में पंजाब का यह पूरा परिक्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में आने वाला था मगर आखरी समय में पूरा गुरदास पुर सेक्टर ही हमें मिल गया । हालांकि इसकी बड़ी कीमत भी हमने चुकाई और लाहौर हमारे हाथ से निकल गया मगर क्या कहें, यह कोई इकलौती बेवकूफी तो थी नहीं जो विभाजन के दौरान हुई । खैर बात फतेह गढ़ चूड़ियां तक ही महदूद रखने की कोशिश करता हूं।
साल 1965 और 1971 के भारत पाक युद्ध ही नहीं कारगिल के हमले में भी खौफ का जो माहौल इस कस्बे के लोगों ने जिया था , वैसी दूसरी मिसाल आपको देश में अन्यत्र नहीं मिलेगी। चूंकि सीमा से सटा है मात्र पंद्रह हजार की आबादी का यह कस्बा, अतः यहां के लोगों में देशभक्ति का जज्बा भी कूट कूट कर भरा है। पाकिस्तान से हुई लड़ाईयों में भारतीय सेना के जवान जब यहां से गुजरते थे तो स्थानीय लोग स्वागत के लिए सड़कों पर खड़े मिलते थे । शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होता था जो अपने फौजियों के लिए घर से खाना बनवा कर न लाता हो । यही वह क्षेत्र था जहां की स्त्रियों ने 1965 और 1971 में सरकार की मदद को सर्वाधिक अपने गहने दान कर दिए थे। वर्ष 1971 में जब भारत की फ़ौज पाकिस्तान के भीतर दस किलोमीटर तक चली गई थी तब दुश्मन देश की सीमा के भीतर जाकर जश्न भी यहीं के लोगों ने मनाया था । फतेहगढ़ चूड़ियां के पैट्रोल पम्प अरोड़ा फिलिंग सेंटर के मालिक सुशील अरोड़ा बताते हैं कि शिमला समझौते के तहत जब तक पाकिस्तान से छीना गया इलाका वापिस नहीं किया गया था तब तक हम लोग पाकिस्तान के इलाकों में घूमने फिरने चले जाते थे । वहां गांव के गांव खाली हो चुके थे अतः हमारे कुछ उदंडी लोग खाली घरों से सामान भी उठा लाते थे । उन्हें लगता था कि गोलाबारी और जहाजों की निचली उड़ानों से उनके घरों के जो शीशे टूटे हैं, उसकी कुछ तो भरपाई हो । इस लड़ाई में लगभग दस बम पाकिस्तान की ओर से इस कस्बे पर भी दागे गए मगर सौभाग्य से एक भी नहीं फटा। ये बम वर्षों तक खेतों में यूं ही लावारिस पड़े रहे और उसकी मारक शक्ति से अनजान स्थानीय बच्चे उनसे खेलने लगते थे । बाद में सेना को जब इसका पता चला तो उसमे दूर ले जाकर बमों को डीफ्यूज किया ।
हालांकि बंटवारे से पहले फतेहगढ़ चूड़ियां ही नहीं पूरा गुरदास पुर जिला मुस्लिम इलाका होने के कारण पाकिस्तान को मिलना लगभग तय था और हिंदू बहुल लाहौर भारत के हिस्से आना था मगर बंटवारे को अंजाम दे रहे अंग्रेज अफसर रेडक्लिफ को कागज़ पर विभाजन का नक्शा सुन्दर नहीं जान पड़ा। यूं भी जिन्ना पाकिस्तान के लिए कोई बड़ा शहर और मांग रहे थे सो गुरदास पुर हमारा और लाहौर पाकिस्तान का हो गया। आबादी बदल भी इन्हीं शहरों की आपस में अधिक हुई । निकटवर्ती सियालकोट और लाहौर के हिंदू गुरदासपुरिये हो गए और गुरदास पुर के अधिकांश मुसलमान लाहौरी और सियालकोटिये। अब पीछे मुड़ कर इतिहास में झांकते हैं तो बेशक कई गौरवशाली पल नजर आते हैं मगर कई ऐसे भी मिलते हैं जो शक पैदा करते हैं क्या हम भारतीय कभी भी समझदार नहीं थे ? खैर फिर भी फतेहगढ चूडियां जैसे कस्बे से गुजरो तो अच्छा तो लगता ही है।