पॉलिटिकल एजेंडा

रवि अरोड़ा

शिवरात्रि के दिन हों तो अपने बचपन की शिवरात्रि किसे याद नहीं आएगी । मैं अपने बचपन की बात करूँ तो मेरे पड़ौस में भी एक शिव मंदिर था । फागुन के महीने में यूँ भी होली का ख़ुमार हम बच्चों पर तारी रहता था । सो महा शिवरात्रि के दिन हम सुबह से लेकर शाम तक मंदिर के बाहर वाली मुँडेर पर ही बैठे रहते थे । मोहल्ले की चाचियाँ , मौसियाँ और बुआएँ शिव लिंग पर दूध चढ़ाने आती रहती थीं और वापसी में हम बच्चों को फल , मिठाई , धनिये की चूरी और बेर से मालामाल करती रहती थीं । नई कालोनी थी और यूँ भी तब शहर की आबादी अधिक नहीं थी सो शाम तक सौ सवा सौ भक्त ही उस दिन मंदिर पहुँचते थे । इक्का-दुक्का ताऊ नुमा बुड्ढा भांग मिला दूध भी प्रसाद में बाँट देता तो माँओं से ताऊ और बच्चे दोनो गालियाँ खाते । लोटे में केवल जल लेकर कोई मंदिर आता दिखता तो हमें उस पर बहुत ग़ुस्सा आता था । फागुन की महाशिव रात्रि के बाद सावन की शिव रात्रि में भी हम बच्चे मंदिर पहुँच जाते मगर उस दिन बोहनी भी नहीं होती थी । जिसे देखो वही केवल जल लेकर मंदिर आ रहा होता था । तब तक हमें पता नहीं था कि जलाभिषेक नाम की भी कोई चीज़ होती है । उन दिनो तक हमने कोई कांवड़िया भी तो नहीं देखा था । दूर-दराज़ से जल लाकर शिव लिंग पर चढ़ाने की परम्परा भी तब इतनी नहीं थी । हालाँकि सत्तर के दशक में कुछ कांवड़िये सावन के दिनो में नज़र आने लगे मगर तब भी मुझ जैसा सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति नहीं समझ पाता था कि ये कौन हैं और कहाँ जा रहे हैं ।

अपने बचपन के शिव मंदिर के पास चाह कर भी अब मैं शिव रात्रि पर नहीं जा सकता । क्या करूँ वहाँ जाने वाले सारे रास्तों पर कांवड यात्रा के चलते पुलिस अब बेरीकेडिंग जो लगा देती है और यदि पैदल भी जाना चाहूँ तो शायद शाम तक मंदिर तक पहुँचने का नम्बर ही नहीं आएगा । हाँ कांवड़िया वेश धर लूँ तो शायद बात कुछ और हो । एक बार फिर शिवरात्रि आ गई है । जहाँ देखो कांवड़िये ही कांवड़िये नज़र आ रहे हैं । राज मार्ग बंद हैं । जन जीवन ठप है । काम-धंधे ठंडे हैं और जहाँ देखो वहीं बोल बम बोल बम की धूम है ।

उत्तरी भारत अरसे से अपने किसी उत्सव की प्रतीक्षा में था । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश के हाथ तो अब तक ख़ाली से ही थे । हालाँकि उसने उड़ीसा से जगन्नाथ यात्रा , बिहार से छठ , पंजाब से बैसाखी, बंगाल से दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र से गणेश चतुर्थी भी उधार ली मगर वह बात नहीं बनी जो हफ़्तों उसे आनंद से सराबोर रखे । ले देकर उनके पास होली ही बचती थी । बेशक पूर्वी उत्तर प्रदेश वाले होली भी कई दिन तक मना लें मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो वह भी आधे दिन से अधिक का त्योहार नहीं है । मगर अब कांवड यात्रा ने यह सारी कसर पूरी कर दी । उत्तरी भारत को अब एक एसा उत्सव मिल गया जो हफ़्तों चलता है । ख़ास तौर पर समाज में स्वयं को उपेक्षित और दमित-शोषित महसूस करने वालों के लिए तो यह किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं जिसमें वह कांवड लाकर स्वयं को भी महत्वपूर्ण समझ सकते हैं । व्यवस्था में अपना कोई स्थान न पाने वाले लोग भी इस अवसर पर पूरी व्यवस्था को हिला कर एक ख़ास क़िस्म का आनंद लेते हैं । धार्मिक लोगों के लिए आराधना और निठल्लों के लिए अपने मन की कुछ करने का है यह उत्सव । ख़ुद को चमकाने की चाह रखने वालों के लिए भी लाइम लाइट में रहने का बेहतरीन मौक़ा लेकर आता है यह नया उत्सव ।

वैसे कुछ भी हो हमें अपने राजनीतिज्ञों की दाद तो देनी ही पड़ेगी । अपने मतदाताओं के अहम् को सहलाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं । हाल ही में कथित धर्म निरपेक्ष देश की संसद में शपथ लेते समय सांसदों ने जय श्री राम और अल्लाह हू अकबर का नारा लगा कर इसकी जो पुष्टि की है उसके लेटेस्ट वर्जन अब समय समय पर हम देखेंगे ही । अपने उत्तर प्रदेश की बात करें तो कांवड़ियों पर पुलिस के एक आला अधिकारियों ने पिछले साल पुष्प वर्षा कर जो शुरुआत की थी वह इस बार जिले जिले शहर शहर हो रही है । एक आईपीएस अफ़सर तो इतने अधिक उत्साहित हुए कि एक कांवड़िये के पैर ही दबाने लगे। यह आईपीएस भी इकलौता कहाँ हैं , यहाँ तो पूरी प्रदेश सरकार ही कांवड़ियों के चरणों में बैठी है । कल्पना कीजिए कि आने वाले सालों में हमें और क्या क्या देखने को मिलेगा । मुझे मालूम है कि एसी बातों को कुछ लोग धर्म विरोधी क़रार देंगे और मुझे धर्म विरोधी मगर मुझे कोई ज़रा बताये तो कि इसमें अब धर्म बचा ही कहाँ है ? यह उत्सव तो सरासर समाज शास्त्र अथवा राजनीति शास्त्र है और कुछ ख़ास लोगों के लिए तो केवल और केवल पॉलिटिकल एजेंडा ।

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