पूस की रात पार्ट टू

रवि अरोड़ा
सबसे पहले तो मुंशी प्रेमचंद की आत्मा से मुआफ़ी चाहूंगा कि उनकी चर्चित कहानी ‘पूस की रात’ का शीर्षक इस्तेमाल किया । फिर उन लोगों की लानत मलानत करने की इच्छा है जो इस हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में खुले आसमान के नीचे रात बिताने वालों के बाबत कहते हैं कि वे उनके सौ रुपल्ली के गलीच कंबल की चाह खुद पर यह जुल्म करते हैं। देश दुनिया का तो पता नहीं मगर मेरे अपने शहर में कम से कम दो तीन हजार लोग आजकल खुले आसमान के नीचे रात बिताने को मजबूर हैं। इनमें कई रिक्शा चालक हैं तो कई दिहाड़ी मजदूर। कोई भिखारी है तो कोई अन्य किसी मुसीबत का मारा । जाहिर है कि उनकी इस तकलीफ से कुछ कोमलमना लोग द्रवित भी हो उठते हैं और सर्दी की रात में घर से निकल कर इस बेसहारों को गर्म कंबल वितरित करते हैं। मगर इन कोमलमना लोगों को अपने उन लोगों की बातें भी सुननी पड़ती हैं जिन्हें लगता है कि ये कथित बेसहारा लोग दान में मिला कंबल अगले दिन बाज़ार में बेच देते हैं उस पैसे की शराब पीकर फिर किसी नए कंबल की उम्मीद से रात को खुले में लेट जाते हैं।
पूस यानि पौष का महीना हालांकि खत्म हो गया है मगर सर्दी रत्ती भर भी कम नहीं हो रही। यही कारण है कि कई छोटी मोटी संस्थाएं और इक्का दुक्का लोग आजकल रात में बेसहारों को कंबल बांट आते हैं। मेरी अपनी जानकारी में कम से कम बीस ऐसे लोग और संस्थाएं हैं जो यह कार्य करती हैं। एक अनुमान के अनुसार शहर में लगभग सौ सवा सौ लोग यह कार्य करते हैं। अनुमान यह भी है कि लगभग सभी के द्वारा औसतन सौ डेढ़ सौ कंबल पूरी सर्दियों में वितरित किए जाते हैं। अधिकांश लोग दस बीस कंबल ही बांटते हैं मगर कवि नगर निवासी डॉक्टर आरके अग्रवाल जैसे भी इक्का दुक्का लोग हैं दो से तीन हजार कंबल हर सर्दी में बांटते हैं। आंकड़ा फैलाऊं तो पूरी सर्दी में हर बेसहारा के हिस्से अधिक से अधिक दो कंबल ही आते होंगे । वह भी तब है जब कंबल बांटने वाले हर जरूरत मंद तक पहुंच सकें। क्योंकि कुछ तस्वीर प्रेमी समाजसेवी तो घर के आसपास ही किसी गरीब को कंबल औढ़ाने की फोटो खिंचवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
अब बात उनकी जिन्हें लगता है कि कंबल पाने वाले ड्रामेबाज होते हैं और उसे बेच कर शराब पी जाते हैं। ऐसे लोगों से अपना सवाल है कि अच्छी तरह ढूंढकर सस्ते से सस्ता जो कंबल आपने सौ डेढ़ सौ रुपए में खरीदा, वह अगले दिन बाजार में अधिक से अधिक कितने का बिका होगा ? चलिए माना कि उतनी ही कीमत में बिक भी गया होगा तब भी क्या संभव है कि तीन चार महीने की बेपनाह सर्दी में कोई इसलिए खुले आसमान के नीचे सोए कि उसे पूरे सीजन में दो तीन सौ रुपए की अतिरिक्त कमाई हो जायेगी ? यदि तीन चार डिग्री तापमान में कोई ऐसा कर पा रहा है तो यह किसी तपस्या से कमतर है क्या ? हो सकता है कि दो चार फीसदी लोग कंबल बेचकर शराब पी भी जाते होंगे मगर ऐसा भी तो हो सकता है कि कम्बल बेचकर उन्होंने अपने लिए खाना खरीदा हो अथवा किसी अपने की दवा खरीदी हो ? यदि ऐसा हुआ होगा तब तो कंबल बांटने वाले का पुरुषार्थ वाकई सार्थक नहीं हो गया होगा ? एक सवाल यह भी है कि कंबल की चाह में ये गरीब गुरबा लोग आपके पास आते हैं या अपने अहम की संतुष्टि, पुण्य की लालसा अथवा मन की शांति की चाह में आप लोग ही उनके पास जाते हैं ? यदि आप अपनी गरज से उनके पास गए तो दाता आप हुए या वो ? इस हिसाब से तो आपका हित साध कर वे गरीब आप पर ही एहसान नहीं कर रहे क्या ? फिर क्यों इतनी हाय हाय, क्यों किसी की मजबूरी का इस कदर मज़ाक उड़ाना ? मुआफ़ कीजिए मैं तो निजी तौर पर खुद को इन मुफलिसों का एहसानमंद पाता हूं जो व्यवस्था की विफलता के चलते मिली इस बेबसी में भी किसी से कुछ छीन नहीं रहे और आपके दो टके के कंबल की इंतज़ार में सड़क किनारे रात भर पड़े रहते हैं।

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