पार्टीशन म्यूज़ियम से लौट कर
रवि अरोड़ा
हाल ही में दिल्ली स्थित पार्टीशन म्यूजियम भी जाना हुआ । अमृतसर के बाद यह देश ही नहीं वरन दुनिया का दूसरा म्यूज़ियम है जो विभाजन की विभीषिका को रेखांकित करता है। दिल्ली कश्मीरी गेट स्थित डॉक्टर बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय परिसर में पिछले साल ही शुरू हुआ यह म्यूज़ियम हालांकि अमृतसर के म्यूजियम के मुकाबले बेहद छोटा है और इसमें जिज्ञासुओं के लिए सामग्री भी बेहद कम है मगर फिर भी इसे देखना हर जागरूक भारतीय के लिए जरूरी सा ही है। ये दोनों ही म्यूज़ियम निष्पक्षता से नंगी सच्चाई को बयां करते हैं साथ ही बंटवारे को लेकर हमारी आंखों पर डाले गए परदे को भी तार तार करने का प्रयास करते हैं। इन्हें देख कर ही पता चलता है कि देश के विभाजन के समय मारे गए लाखों लोगों के असली कातिल दरअसल कौन थे ? इतिहास में नायक का दर्जा प्राप्त कितने लोग सचमुच नायक थे और कितने खलनायक इसे लेकर भी एक नई रौशनी यह दोनों म्यूज़ियम देते हैं।
बचपन से लेकर दो साल पहले अमृतसर का पार्टीशन म्यूज़ियम देखने तक मैं अपने बुजुर्गों से इस बात को लेकर बेहद खफा रहता था कि जब आप लोगों को मालूम था कि देश का बंटवारा हो रहा है और माहौल कई महीने पहले से ही बिगड़ना भी शुरू हो गया था फिर क्यों नहीं आप लोग पहले ही वहां से अपना सब कुछ बेचबाच कर इधर चले आए ? क्यों आखरी समय तक अपनी संपत्ति से चिपके रहे और जब उस पार रह गए पंजाब के हिस्से से भगाए गए तो तन कर कपड़ों के अलावा कुछ और ला भी नहीं सके ? अमृतसर के म्यूजियम और अब दिल्ली में भी उसके प्रतिरूप ही मुझ जैसों को यह समझ देते हैं कि हम बंटवारे के शिकार लोगों की सही सही मनस्थिति समझ सकें। उस दौर में जब भारतीय राजनीति के पितामह महात्मा गांधी दावा कर रहे हों कि बंटवारा मेरी लाश पर होगा तब कोई आम हिंदुस्तानी कैसे यकीन करता कि उनकी आवाज भविष्य में नक्कारखाने में तूती की हैसियत लेने वाली है। जब देश को आजादी पहले मिली हो और बंटवारा बाद में हुआ हो तो कैसे किसी को पता चलता कि कहां भारत होगा और कहां पाकिस्तान ? कागज पर बंटवारे की रेखा खींचने वाले अंग्रेज वकील सिरिल रेडक्लिफ ने पहले लाहौर भारत को देने की बात कही थी तब भला कैसे कोई लाहौरी अथवा उसके आसपास रहने वाले मेरे बुजुर्गों जैसा हिन्दू अपना शहर छोड़ता ?
ऐसे म्यूज़ियम ही तस्दीक करते हैं कि नायक सदैव नायक नहीं होते कभी कभी खलनायक भी साबित होते हैं और खलनायकों के हाथों भी कभी कभी कोई काम भला हो जाया करता है। इतिहास गवाह है कि बंटवारे के जितने दोषी मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग थी उतने ही सावरकर जैसे लोग, हिंदू महासभा व आरएसएस भी थे मगर यह तो सुखद ही रहा कि पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब से आए पचास लाख से अधिक लोगों को भी इन लोगों ने सर्वाधिक सहारा दिया और उनकी मदद की। गांधी बेशक विभाजन के विरोधी थे मगर विस्थापित होकर आए पंजाबियों को सहारा देने की बजाय बाद में उनके रिफ्यूजी कैंपों में जाकर उन्हें ही लताड़ते थे कि वहीं क्यों नहीं लड़ कर मर गए । दिल्ली छोड़ कर पाकिस्तान गए मुस्लिमों के घरों में जब पंजाब से आए लोगों ने बसना शुरू किया तो उन्हें वहां से निकालने को अनशन भी गांधी ने ही शुरू किया था । कश्मीर में युद्ध शुरू हो जाने के बावजूद गांधी का पाकिस्तान को तय शुदा पचपन करोड़ रुपए अदा करने की जिद ने भी कंगाल देश को विस्थापितों की मदद करने में बाधा डाली । नेहरू और पटेल दोनों बंटवारे को स्वीकार करने वाले सर्वमान्य बड़े नेता थे मगर शुरू शुरू में उन्होंने भी घोषणा की थी कि हम तीन लाख से अधिक विस्थापितों को भारत में नहीं लेंगे । हालांकि इतिहास की सबसे बड़ी इस विभीषिका के समक्ष सभी नेता, उनके अनुमान और योजनाएं बौनी साबित हुईं और 72 लाख 49 हजार लोग उधर से इधर आ गए और लगभग इतने ही यानी 72 लाख 26 हजार लोग हमेशा हमेशा के लिए इधर से उधर चले गए । बीस लाख से अधिक लोग कहीं नहीं पहुंच सके और अपने अपने घरों में, सड़कों पर , रेलगाड़ियों में, बाजारों में और काफिलों में मारे गए । हालांकि अपने नायकों और खलनायकों को लेकर मेरी राय इन म्यूज़ियम से लौटने के बाद भी यथावत है और गांधी , नेहरू और पटेल जैसे लोग आज भी मेरे मन में सर्वोच्च नेता का स्थान रखते हैं फिर भी उसके सम्मान में थोड़ी बहुत विचलन तो ऐसी जगह से लौट कर आती ही है ।