पत्ता खड़कने का डर

रवि अरोड़ा
सावन का महीना है और आजकल चहुंओर कांवड़ियों की धूम है। इस परम्परा से हो रही जन जीवन की तकलीफों पर कुछ साल पहले मैंने एक लेख लिखा था । फेसबुक पर कांवड़ियों से संबंधित अनेक पोस्ट देख कर मन मचल उठा कि क्यों न वही पुराना लेख सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया जाए । मगर इस ओर कदम बढ़ाने से पहले उस लेख को जब दोबारा पढ़ा तो भयभीत हो उठा । अरे ये लेख तो मरवा देगा । बेशक उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो देश-समाज को जागरूक करने के लिए ना लिखा गया हो मगर जागरूकता जैसी चीजें अब बची ही कहां हैं फिर उसकी बात भी कोई कैसे कर सकता है ? अब तो हर लिखा गया शब्द इस नजर से देखा जाता है कि इससे सत्ता प्रतिष्ठान का फायदा होता है अथवा नुकसान । यदि फायदा होता है तो स्वागत है और यदि नहीं तो हवालात बने ही ऐसे लेखकों के लिए हैं। गौर से देखिए कुछ सालों में ही मुल्क कितना बदल गया है । कुछ साल पहले तक खुल कर लिखी और कई जगह प्रकाशित टिप्पणियां अब सार्वजानिक करने से पहले भी सोचना पड़ रहा है। क्या पता कब कौन राष्ट्रद्रोह और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप से आपकी खबर ले ले । अब आप ही सलाह दीजिए कि मुझ जैसी कमजोर पृष्ठभूमि वाले आदमी को क्या ऐसे में डरना नहीं चाहिए ?

देख कर हैरानी होती है कि हमारे पूर्वज क्या क्या लिख गए । कबीर, पेरियार, अंबेडकर, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, ज्योति बा फुले और बुल्ले शाह जैसे कवियों, संतों और समाज सुधारकों ने जो जो कहा अथवा लिखा उन्हें तो आज दोहराया भी नहीं जा सकता । हाल ही में एक साहब इसी बात पर जेल पहुंच गए कि उन्होंने महात्मा फुले द्वारा कही गई एक बात ट्वीट कर दी थी । कमाल है इन संतों, कवियों और सुधारकों की जयंतियां तो हम धूमधाम से मनाते हैं मगर उनकी बातों को दोहरा नहीं सकते। उन्हें पूज तो सकते हैं मगर उनके बताए मार्ग पर चल नहीं सकते। पता नहीं ये लोग आज होते तो उनके साथ क्या सलूक होता । यकीनन कुछ देशद्रोह में पकड़े जाते और बाकियों के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का मुकदमा चलता ।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 के बाद से हर साल देशद्रोह के मुकदमों की संख्या में हाल ही तक लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद जाकर माहौल अब कुछ ठंडा हुआ है मगर अब भी देशद्रोह संबंधी आईपीसी की धारा 124 ए के तहत आठ सौ मुकदमों में 13 हजार लोग जेलों में हैं । हैरानी की बात यह है कि पिछले आठ सालों में मात्र दस लोगों के खिलाफ अपराध साबित हो सका है । अदालतों में सिद्ध हुआ कि सरकार से अलग राय रखने की सजा हजारों निर्दोष लोगों को मिली। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की रिपोर्ट दर्ज होने के तो सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त हो रहे हैं। देश के हर कोने से हर दिन ऐसी खबरें आ रही हैं। अजब स्थिति है, पत्ता भी खड़के तो किसी ना किसी की धार्मिक भावना को ठेस लग जाती है । इससे संबंधित आईपीसी की धारा 295 ए फिल्मी कलाकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व विरोधी दल के नेताओं की चूड़ियां टाइट करने का नया हथियार बन कर उभरी है। खौफ का ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि सही बात कहने से पहले भी चार बार सोचने को जी करता है। अब यही वजह है कि कांवड़ यात्रियों पर मैं अपना पुराना लेख पोस्ट नहीं कर रहा । इस बारे में आपकी क्या राय है, थोड़ा बहुत डर तो आपको भी लगता होगा या आप डराने वालों के साथ हो ?

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