पट्ठों और पेठों की दुनिया
रवि अरोड़ा
हाल ही में जब धनौल्टी गया तो निकट के पहाड़ी गांव चलचला में काश्तकार यशपाल सिंह के यहां ठहरा। उसके खेत में पेठानुमा एक बड़ा सा फल उगा देखा । पूछने पर पता चला की कुम्हड़ा है। मेरे अनुरोध पर रात्रि के भोजन में यही कुम्हड़ा बनाया गया । इस कदर स्वादिष्ट थी कुम्हड़ा की सब्जी की पेट भर गया मगर दिल नहीं भरा । पता चला कि इसके पौधे लताओं के रूप में फैलते है | इसकी कुछ प्रजातियों में फल 1 से 2 मीटर तक लम्बे पाए जाते है । अपने शहर में मैने पेठे के फल पर हल्के सफ़ेद रंग की पाउडर नुमा एक परत देखी थी मगर यह पहाड़ी पेठा ऐसा नहीं था और वह हमारे हरे पेठे से अलग कुछ कुछ पीली रंगत लिए हुए था । कच्चा होने पर वहां भी इसकी मिठाई बनाई जाती है और पकने पर सब्जी बनाने के काम आता है। अब आप पूछ सकते हैं कि मैंने बिला वजह आज राग पेठा क्यों छेड़ रखा है और तमाम जरूरी मुद्दों और अहम मसलों को छोड़ कर पेठे जैसी थकी सी चीज का क्यों तबसरा कर रहा हूं ? तो जनाब इसकी भी बड़ी मजबूरी है। मजबूरी यह है कि मुद्दों पर अब बात पसंद ही कहां की जाती है ? राजनीति हो अथवा समाज, मुख्य धारा का मीडिया हो अथवा सोशल मीडिया जरूरी मुद्दों को दरकिनार कर गैरजरूरी चीजें ही तो चहूंओर छाई हुई हैं । धीरे धीरे ही सही मगर हम एंटी इंटेल्लेक्चुएलिज़म के ऐसे मकड़ जाल में फंसते जा रहे हैं, जहां अब सबसे गैरजरूरी चीज मानवीय प्रज्ञा ही तो है।
अजब स्थिति है कि राजनीति अब विमर्श नहीं अंधसमर्थन की शय हो चली है। धड़े बंदी ऐसी जैसी इतिहास में कभी नहीं दिखी। धर्म परिचर्चाओं को नहीं कदम ताल को आमंत्रित करते दिखाई पड़ते हैं। जो दृष्ट नहीं वह धर्म नहीं। कलावा बांधो या फिर पहनो टोपी , पगड़ी बांधो या गले में क्रॉस टांगो। बीच के किसी रास्ते की कोई गुंजाइश नहीं। काम कोई भी हो, पेशा कोई भी हो, केवल और केवल सफलता ही सर्वोपरि हो गई है चाहे वह किसी भी तरीके से मिले । पूरा का पूरा सूचनातंत्र दुर्गंधयुक्त है और दावे से किसी भी खबर केवल खबर नहीं कहा जा सकता । लोगों के आपसी संबंध भी स्वार्थ के फ्यूल से चलते हैं । स्वार्थ ख़त्म संबन्ध खत्म । ऐसे में किसी चर्चा का , किसी परिचर्चा का भला क्या मोल ? किससे सवाल किए जाएं और क्या किए जाएं ? जमाना जब सवाल पूछने के नाम पर आम खाने का तरीका पूछने का हो तो असली सवालों की गुंजाइश ही भला कहां बचती है ? कमाल देखिए कि ऐसा प्रदर्शित किया जा रहा है जैसे सारा कसूर उस बेचारे आम आदमी का ही है जिसे आम तो क्या सूखी रोटी भी नसीब नहीं हो रही । सारे दोष उसके ही गिनाए जा रहे हैं। जैसे असली वही भ्रष्ट है और उसी के कारण ही बेचारा बाकी सिस्टम भ्रष्ट हुआ है। अजब माहौल है। जरूरी बातें करने वाले सबसे अधिक गैर जरूरी हैं और सवालों की दुनिया से बेखबर लोग पवित्र आत्माएं । अब बताइए ऐसे में भला मैं भी अपने पेठे की बात क्यों न करूं ? वैसे हो सके तो आप भी अपने लिए मेरे पेठे जैसा कुछ ढूंढ लीजिए । जितनी जल्दी ऐसा करेंगे उतना ही अच्छा है । दुनिया अब पट्ठों और पेठों से ही चलनी है। हां तो मैं क्या बता रहा था ? हां ! इस पहाड़ी पेठे के बीजों को सुखा कर अचार भी बनाया जा सकता है और औषधीय गुणों से युक्त यह फल पेट संबंधी रोगों के लिए भी बहुत अच्छा होता है। आज का ज्ञान समाप्त।