नय्यर साहब का जाना
रवि अरोड़ा
सन 1990 का कोई महीना था । नय्यर साहब मेरे साप्ताहिक समाचार पत्र जन समावेश का विमोचन करने शहर के चौधरी गोष्ठी कक्ष में आए थे । नय्यर साहब से शाबाशी की चाह में मैंने अख़बार में अनेक भंडाफोड़ क़िस्म की ख़बरें छापी थीं मगर हुआ इसके उलट । अपने एक घंटे के सम्बोधन के उन्होंने एक बार भी जन समावेश की ख़बरों का ज़िक्र नहीं किया । कार्यक्रम की समाप्ति पर जलपान के समय मैंने फिर इस ग़रज़ से अपने अख़बार की ख़बरों पर बात शुरू कर दी कि शायद अपने भाषण में वे भूलवश ख़बरों का ज़िक्र न कर पाये हों और सम्भवत अब उन पर बात हो । ख़बरों की बात शुरू होते ही उन्होंने मुझे पंजाबी में डाँट लगाई और कहा कि पुत्तर इन ख़बरों में लोक हित कहाँ है ? उन्होंने कहा कि रिपोर्टर बनो ख़बरें ढोने वाला पोर्टर ( क़ुली ) मत बनो । …. पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने इस पहले गुरु श्रद्धेय कुलदीप नय्यर साहब के दुनिया से कूच करने की ख़बर उनसे जुड़ी यादों का रेला सा लेकर आज मुझ तक पहुँची है।
विनम्र और मधुरभाषी नय्यर साहब को देख कर लगता ही नहीं था कि यही वो शक्स हैं जिनसे इंदिरा गांधी भी ख़ौफ़ खाती थीं । आपातकाल के हीरो , विभिन्न अंग्रेज़ी अख़बारों के सम्पादक , लाल बहादुर शास्त्री के निजी सचिव , पाकिस्तान के परमाणु सम्पन्न हो जाने की सबसे पहले दुनिया को ख़बर देने वाले , भारत-पाक दोस्ती का पैग़ाम लेकर वर्षों तक सीमा पर उम्मीदों के चराग वाले , ब्रिटेन में भारत के उचायुक्त और राज्यसभा सदस्य रहे नय्यर साहब निजी बातचीत में इतने सहज थे कि अंदाज़ा ही नहीं होता था कि आप सदी की एक महान शख़्सियत के सामने बैठे हैं । वे जितनी बार भी ग़ाज़ियाबाद आए हर बार यहाँ का पूरा लेखा जोखा उनकी ज़बान पर था । यहाँ की खाने पीने की दुकानों पर बात करते हुए एक बार मैं उन्हें कुछ नाम गिनवा रहा था । इस पर वे बोले- और लोकनाथ ? मुझे अपनी ग़लती का अहसास हुआ और मैंने माना कि जी लोकनाथ लस्सी वाले के बिना शहर में खाने पीने की बात अधूरी है । नय्यर साहब का आवभगत में भी कोई सानी नहीं था । घर में कई सहयोगियों के बावजूद उनकी पत्नी फुर्ती से सामने वाले की प्लेट में जब रोटी रखती हैं तो सहसा विश्वास नहीं होता कि वे संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री रहे भीम सेन सच्चर की बेटी और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और चर्चित सच्चर कमेटी के प्रमुख राजेंद्र सच्चर की बहन हैं । खाना ख़त्म होते ही नय्यर साहब बड़ी बेतकल्लुफ़ी से मेहमान को कह भी देते थे कि अब उनके सोने का समय रहा है । अगली बार आने का वादा लेकर मेहमान को रूखसत करते हुए उन्हें जैसे फिर याद आ जाता था और वे पूछते थे कि मेरी नई किताब पढ़ी ? जवाब न में मिलने पर वे फिर अपनी लाइब्रेरी कम ऑफ़िस में ले जाते और अपनी किताब भेंट करते थे । बड़े भाई वी पी वशिष्ट उनके प्रिय लोगों में से थे और देश में कारोबार जगत का हाल भी वे अक्सर उनसे लेते रहते थे । सामने वाले की बात पर असहमति व्यक्त करने का उनका अपना ही तरीक़ा था और हंस कर कहते थे कि तू तो पागल है । आख़री वर्षों में सहारे के लिए स्टिक लेकर चलने वाले और चौरानवे वर्ष के आदमी से अक्सर उम्मीद की जाती है कि वह अतीत में ही जीता होगा मगर नय्यर साहब को अतीत पर बात करने के लिए तो कुरेदना पड़ता था । उनकी एक आँख सदा वर्तमान में और दूसरी भविष्य को टटोलने में रहती थी । भविष्य को टटोलने वाले अपने इस बुज़ुर्ग के दुनिया से रूखसत हो जाने पर मन उनसे जुड़ी यादों में सुबह से गोते खा रहा है । इससे बाहर आऊँ तो कुछ और बात करूँ ।