धार्मिक स्थलों की नीलामी के मायने

धार्मिक स्थलों की नीलामी के मायने
रवि अरोड़ा
एक खबर हाल ही में निगाह से गुजरी कि स्कॉटलैंड में अनगिनत चर्च बिकाऊ हैं। दरअसल एक वक्त में वहां इतनी चर्च बना दी गईं कि अब उनके रखरखाव की समस्या हो रही है। विज्ञान के दौर के चलते चर्च में जाने वाले दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं और अब ईसाईयों को खाली पड़ी चर्चों से जान छुड़ाना भारी पड़ रहा है । उधर, यह भी खबर है कि इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या भी इधर तेजी से बढ़ी है और दुनिया भर में मुल्हिदों यानी इस्लामिक नास्तिकों के अनेक समूह सक्रिय हो गए हैं। जगजाहिर है कि ईसाइयत दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है और उसके मानने वालों की संख्या 240 करोड़ से भी अधिक है। इस्लाम दूसरे नंबर पर है और उसके मानने वाले भी 190 करोड़ के आसपास हैं। हिन्दू धर्म के अनुयाई तीसरे नंबर हैं और उनकी संख्या भी 116 करोड़ आंकी गई है। बेशक ईसाइयत और इस्लाम के बरअक्स हिन्दू धर्म के हालात फिलवक्त कुछ बेहतर नज़र आते हैं मगर फिर भी आशंका तो होती ही है कि क्या हिंदू धर्म के साथ भी निकट भविष्य में कहीं ऐसा तो नहीं होने जा रहा ?
क्या गजब है कि दुनिया में सबसे अधिक छपने और बिकने वाली किताब अंग्रेजी की बाइबल है । हर ईसाई के घर में कम से कम दो तीन बाइबल तो मिल ही जाएंगी मगर एक सर्वे के मुताबिक यही किताब छपाई के अनुपात में दुनिया में सबसे कम पढ़ी जानी वाली किताब भी है । आम ईसाई मानते हैं कि इतवार को चर्च हो आने के बाद अब बाइबल पढ़ने की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? उधर, बेशक कुरान दुनिया की सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तक है। लाखों नहीं वरन् करोड़ों लोग इसे सुबह शाम पढ़ते हैं । यही वह किताब है जो सबसे अधिक एक दूसरे को भेंट भी की जाती है मगर हैरानी की बात यह है कि यही वह किताब है जो पढ़ने वालों के अनुपात में सबसे कम समझी जाती है। दरअसल कुरान अरबी भाषा में है और दुनिया भर के मुसलमानों ने अरबी पढ़ना तो सीख लिया मगर इसका मतलब उनके पल्ले नहीं पड़ता । कम से कम भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत पूरे दक्षिणी एशिया का तो यही सत्य है जहां दुनिया के मुस्लिमों की लगभग चालीस फीसदी आबादी रहती है । वहां भी दीन का मतलब केवल जुम्मे की नमाज पढ़ना और रमजान पर रोजे व ईद मनाना भर रह गया है। दूसरी ओर हिंदुओं में भी उनकी धार्मिक पुस्तकें रामायण, महाभारत, गीता, वेद और उपनिषद आदि पढ़ चुके लोग ढूंढे से नहीं मिलते । बावजूद इसके मंदिरों में प्रतिदिन माथा टेकने वाले हिंदुओं की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और उनके धार्मिक आयोजन भी अब खूब धूम धड़ाके से होने लगे हैं। समझ से परे है कि धर्म के नाम पर आज जो हो रहा है वही धर्म है या यह कोई कम्यून भर है जहां अपनी संस्कारगत आदतों के चलते लोग इससे जुड़े हुए हैं ? क्या कथित धार्मिक क्रिया कलापों में शिरकत करना लोगों के लिए अपनी बेहतर सामाजिक छवि बनाने का कोई जतन भर है अथवा प्रभावी सामाजिक दायरे से खुद को जोड़ने की यह कोई जुगत है ? सबसे बड़ा सवाल तो यह भी है कि कहीं यह अपना संख्या बल दिखाने का कोई खेल तो नहीं है और आज के तमाम राजनीतिक हथकंडे इसी के गर्भ से उत्पन्न हो रहे हैं ?
आज विज्ञान ने साबित कर दिया कि तमाम धर्मों की अधिकांश कहानियां बाल कथाओं सरीखी झूठी और कपोल कल्पित हैं। पढ़े लिखे युवा इन कहानियों पर कतई विश्वास नहीं करते और इसी के चलते अपने अपने धर्म से विमुख हो रहे हैं। तो क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि तार्किकता के इस युग में तमाम धर्मों की पकड़ मात्र तीन चार हजार साल में ही हम होमोसीपीयन्स पर ढीली पड़ गई है ? क्या यही कारण तो नहीं कि जो ईसाइयत विज्ञान की बात करने वालों को कभी सूली पर चढवा देती थी और जिसके पोप का कद सम्राटों से भी बड़ा होता था, आज अपनी चर्चें बेचने पर मजबूर हो रहा है ? साफ दिख रहा है कि इस्लाम भी अपने सुनहरे दौर से अब बाहर आ चुका है और तमाम तब्लीगों के बावजूद जुम्मे के अतिरिक्त मस्जिदें खाली पड़ी रहती हैं। सवाल मौजू है कि क्या ऐसा ही वक्त हिंदू धर्म का भी आने वाला है या यह सचमुच सनातन ही बना रहेगा । यदि सनातन ही रहेगा तो क्या इसका यही स्वरूप रहेगा जो आज चहुंओर दिखाई पड़ रहा है ? आध्यात्मिकता और ज्ञान से कोसों दूर मगर शोर शराबे और धूम धड़ाके से पूरी तरह लबरेज ?

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