धर्मान्तरण की खबरों से उपजे सवाल

रवि अरोड़ा
आजकल फिजाओं में धर्मांतरण का मुद्दा छाया हुआ है । लगभग रोज ही धर्मांतरण कराने वाले किसी न किसी गिरोह के पर्दाफाश की खबर अखबारों में छपती है । सवाल मौजू है कि क्यों तो कोई किसी का धर्म परिवर्तित करवाना चाहता होगा और दूसरा धर्म अपनाने से किसी को ऐसा क्या हासिल हो जाता होगा जो पहले इसके पास नहीं था ? बेशक आज मानवीय समाज पर तमाम धर्मों की पकड़ ढीली पड़ चुकी है मगर फिर भी ऐसा क्या है कि धर्म के नाम पर आक्रामकता रत्ती भर भी कम नहीं हो रही ? बेशक भारतीय संविधान हमें अपने धर्म के पालन और उसके प्रचार का अधिकार देता है मगर उसमें कहीं भी तो नहीं लिखा है कि दूसरे धर्म के लोगों को अपने धर्म में शामिल करने के कुत्सित प्रयास की इजाजत किसी को है। जगजाहिर है कि इसी की रौशनी में तमाम राज्य सरकारों ने जहां ऐसे प्रयासों की रोकथाम हेतु कड़े कानून बना रखे हैं , वहीं अदालतों ने भी जन सांख्यिकी के मामले में यथास्थिति के तमाम लाभ गिनाते हुए भारतीय समाज के बहुसांस्कृतिक चरित्र को बनाए रखने की वकालत की है। यूं भी सामूहिक एजेंडे के तहत कराए जा रहे धर्म परिवर्तन सामाजिक समरसता के लिए किसी बड़े खतरे से कम नहीं हैं । उधर , किसी से छिपा नहीं है कि देश में आमतौर पर हिंदुओं का ही धर्मांतरण कराया जा रहा है और हर बार ईसाई मिशनरी और मुस्लिमों की तबलीगी जमात पर ही संदेह की उंगलियां उठती हैं। ऐसे में सवाल यह भी है कि हिन्दू धर्म में ऐसी क्या खामियां उभर आई हैं कि लोगबाग अब उसे छोड़ रहे हैं ?
मेरा पंजाब में आना जाना लगा ही रहता है। धर्मांतरण का खेल सर्वाधिक मुझे इसी राज्य में दिखाई पड़ता है। उत्तरी भारत के अन्य राज्यों से इतर वहां इस्लाम नहीं वरन नॉर्थ ईस्ट की तरह ईसाई मिशनरियों का बोलबाला है। यही वह राज्य है जहां एक ओर तो सिक्ख गुरुओं की समरसता की सीख पर अमल की बात की जाती हैं मगर वहीं सैंकड़ों साल की तोता रटंत के बावजूद वहां जाति प्रथा का शिकंजा रत्ती भर भी ढीला नहीं पड़ा है। कथित नीची जातियों को पहले वहां राम रहीम और रामपाल जैसों के डेरों ने अपने चंगुल में फंसाए रखा और अब विगत एक दशक से मसीह महासभा जैसे संगठन इन जातियों से संबंधित लोगों का धर्मान्तरण करवा रहे हैं। कथित ऊंची जातियों के भेदभाव से दुःखी रैदासे सिक्खों में तो इन संगठनों से जुड़ने की होड़ सी मची है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ईसाई होने के लिए उन्हें अब अपना नाम भी नहीं बदलना पड़ता और केश व पगड़ी धारण करने पर भी किसी ईसाई को अब कोई रोक नहीं है। जाहिर है कि इसी के चलते आरक्षण का लाभ भी वे जम कर उठा सकते हैं। मेरे अपने एक परिचित ईसाई धर्म के पादरी बन गए हैं और उन्होंने अपनी हिंदू नाम वाली पहचान को भी कायम रखा है। पंजाब में रावी और सतलुज के बीच के माझा क्षेत्र के किसी भी गांव में चले जाइए , वहां आपको कोई न कोई चर्च मिल ही जायेगी। खास बात यह है कि गुरुद्वारों की तरह वहां भी आपको लंगर लगते दिखाई पड़ेंगे । बटाला, अमृतसर और गुरदासपुर के कस्बों मे ईसाई पादरियों के पोस्टर और होर्डिंग नज़र आना भी अब आम है। आंकड़े बताते हैं कि 2011 की जनगणना के दौरान पंजाब में मात्र 3 लाख 48 हजार लोगों ने अपना धर्म ईसाई बताया था । देखना दिलचस्प होगा कि आगामी जनगणना में यह आंकड़ा कहां तक पहुंचता है। यहां यह बताना जरूरी है कि पंजाब में सक्रिय ईसाई मिशनरी भी पाखंड से लबरेज टोने टोटकों से अपनी दुकान चला रहे हैं और पूजा पाठ कर लाईलाज बीमारियों से कथित तौर पर लोगों को छुटकारा दिलाने का दावा कर रहे हैं।
देश दुनिया के तमाम धर्मों की रीति नीति चुगली करती है कि उनका कारोबार उहलोक के सहारे चलता है। हिन्दू धर्म का तो आधार ही यही है कि जीवन में यदि कुछ अच्छा हो रहा है तो वह पूर्व जन्मों के सद्कर्मों का प्रताप है और बुरा हो रहा है तो पूर्व जन्मों के कुकर्म जिम्मेदार हैं। इसी प्रक्रिया के चलते इस जन्म के कर्मों का हिसाब किताब भी इस जन्म में नहीं वरन अगले जन्म में होना है। यही कारण है कि तत्काल परिणाम की चाह वाले इस युग में यह विचार अब लोगों को अधिक देर तक बांध नहीं पाता । हर कोई अपने कर्मों का फल इसी जन्म में चाहता है। इहलोक में जो मददगार है, वही उसका अपना है और पोस्टडेटिड चेक सरीखी बातें करने वाले अब लोगों को अधिक देर तक लुभा नहीं पाते । यूं भी जब अपने धर्म में कोई पूछ नहीं रहा हो और दूसरे धर्म वाले तमाम प्रलोभन दे रहे हों तो किसी का मन डोलने में कितनी देर लगती है । मैं धर्मान्तरण के पक्ष में नहीं हूं और इसे कानूनन अपराध की संज्ञा दिए जाने का भी हिमायती हूं मगर फिर भी क्या यह सही वक्त नहीं है कि अपने धर्म के लोगों द्वारा दूसरा धर्म स्वीकार कर लेने से विचलित लोग इस पर भी विचार करें कि संख्या बल के अतिरिक्त अपने धर्म के लोग और उनका सुख दुःख उनके लिए कितना मायने रखता है ? यदि कोई आपका धर्म छोड़ कर जा रहा है तो उसके लिए अपने को कितना दोषी आप मानते हैं ? आपके धर्म से जुड़े लोग आपकी राजनीतिक शक्ति के प्रतीक के अतिरिक्त भी क्या आपके लिए कुछ हैं ? उनके जीवन को संवारने में आपका कितना योगदान है ? क्या आपको नहीं लगता कि धर्मान्तरण पर छाती पीटने वाले लोगों को जरा ठहर कर इस सवालों पर भी विचार करना चाहिए ?

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