देश प्रेम बनाम राष्ट्र प्रेम

रवि अरोड़ा

चंद्रयान 2 की पल पल की ख़बर लेने को नब्बे वर्षीय पिताजी उस रात टीवी से ही चिपके रहे । लैंडर विक्रम का धरती से सम्पर्क टूटने की अधिकारिक घोषणा और सीधे प्रसारण के कार्यक्रम समाप्त होने के बावजूद वे भोर होने होने तक टीवी के चैनल ही बदलते रहे कि शायद कहीं चंद्रयान से जुड़ी कोई अच्छी ख़बर मिल जाये । यही नहीं उन्होंने बीमार माँ को भी जगाये रखा और लाईव कमेंट्री की तरह उन्हें आधी रात तक पल पल की ख़बर से अवगत कराते रहे । अगली सुबह जब पिताजी उठे तो बेहद उदास थे और चंद्रयान के अतिरिक्त कोई और बात ही नहीं कर रहे थे । मिशन पर लगे ग्रहण से अधिक दुःख उन्हें इस बात का था कि आज पाकिस्तान को ख़ुश होने का मौक़ा मिल गया और वह अब हमारा उपहास उड़ाएगा । पिताजी अपने मुल्क से बेहद प्यार करते हैं यह मैं बचपन से जानता हूँ मगर उस दिन उनका देश प्रेम कुछ ख़ास था । चंद्रयान को लेकर उनकी चिंताएँ इसरो के किसी वैज्ञानिक से कम मुझे नज़र नहीं आईं । मैं भली भाँति जानता हूँ कि चंद्रयान , उसकी तकनीक , उसका मिशन और उसके सफल अथवा असफल होने सम्बंधी उनकी तमाम जानकारी अख़बारों और ख़बरिया चैनल्स तक ही सीमित है मगर फिर भी कुछ तो एसा अलग सा उस दिन था जो मेरे पिताजी ही नहीं देश के करोड़ों आदमियों को इस मिशन से जोड़े हुए था । मिशन पूरी तरह सफल होता तो यक़ीनन हर कोई इसे अपनी जीत मानता और और अब जब यह पूरी तरह नहीं सफल हुआ तो हर कोई इसे अपनी हार माने हुए है ।

सन 1971 की भारत पाकिस्तान की लड़ाई मुझे अच्छी तरह याद है । सभी देशवासी एक ख़ास क़िस्म के जुनून से उन दिनो भरे हुए थे । कारगिल युद्ध के समय लगभग रोज़ निकल रहीं शहीदों की शव यात्राओं के समय भी यही माहौल था । क्रिकेट में दो बार वर्ल्ड कप जीतने पर चौराहों पर ढोल की धुन पर नाचते-गाते लोग भी कभी विस्मृत नहीं होते । इस भीड़ में नाचते वे लोग भी दिखे जिनका क्रिकेट से दूर दूर तक वास्ता नहीं था । आख़िर ये कौन सा सूत्र है जो हम सबको एक साथ पिरो लेता है ? क्या यह देश प्रेम है या उससे भी आगे की कोई शय ? वैसे मुआफ़ कीजिये देश प्रेमी तो हम लोग अपने आप को तब भी मानते हैं जब हम अपने देश का सम्मान नहीं कर रहे होते । याद कीजिये एक दौर था जब पंद्रह अगस्त और छब्बीस को सुबह से ही परेड देखने सब लोग टीवी से चिपक जाते थे मगर अब ये दिवस हमारे लिए केवल छुट्टियाँ होकर रह गये हैं । स्कूल-कालेज भी अब एक दिन पहले ही झंडा फहरा देते हैं कि कहीं छुट्टी के दिन आराम में ख़लल न पड़े । जन जीवन पर इन उत्सवों का सिर्फ़ इतना ही असर दिखता है कि उन दिनो ड्राई डे होने के कारण ठेकों पर एक दिन पहले ही लम्बी लाइन लग जाती है । इन राष्ट्रीय पर्व पर एक दिनी देश प्रेम में हाथों में लहराये गए झंडे अगले दिन सड़कों की शोभा बढ़ाते नज़र आते हैं ।

हालाँकि राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल हमारे यहाँ एक ख़ास विचारधारा के लोग ख़ुद को आगे बढ़ाने में करते हैं और राष्ट्रवाद शब्द उनके लिए दूसरों को सबक़ सिखाने का हथियार भर है । शायद यही कारण है बहुत से लोग राष्ट्रवाद को ही खलनायक से कम नहीं समझते । जो भी हो कम से कम मुझे तो देश में अपने क़िस्म का एक अनोखा राष्ट्रवाद ही नज़र आता है जो हम एक सौ पैंतीस करोड़ भारतीयों को एक सूत्र में पिरोये हुए है । बेशक पूरी दुनिया राष्ट्रवाद के लिए समान भाषा, एक नस्ल व समान धर्म तथा क्षेत्र की शर्त ज़रूरी बताये मगर हम भारतीयों ने तो एक अनोखा ही राष्ट्रवाद गढ़ा हुआ है । हमारा देशप्रेम बेशक अक्सर सोता रहता हो मगर हमारा राष्ट्रवाद हमेशा जागता रहता है । हमारे लिए गर्व और पूरी दुनिया के लिए यह हैरानी का विषय है कि विभिन्न धर्मों, भाषाओं और नस्ल के बावजूद हम अपनी विविधताओं को ही अपनी ताक़त बनाने में सफल रहे हैं । अट्ठारहवीं सदी में जब जर्मनी के लोगों ने पहली बार राष्ट्रवाद की कल्पना की होगी तब उन्होंने शायद सोचा भी नहीं होगा कि सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और परिकल्पनाओं के बल पर कोई बहुलतामूलक समाज भी राष्ट्रवाद की कोई नई परिभाषा लिख सकता है । हालाँकि राष्ट्रवाद के अपने ख़तरे होते हैं और उससे अतिराष्ट्रवाद अथवा अंधराष्ट्रवाद उत्पन्न करने के प्रयास होने लगते हैं मगर अपने मुल्क को आगे बढ़ता देखने की आकांक्षाओं से जन्मा हमारा यह अनोखा राष्ट्रवाद दुनिया को एक नई राह दिखाने की ही तो कूव्वत रखता है । यही कूव्वत तो है जो हमारे बीमार बुज़ुर्गों को भी लैंडर विक्रम के विरह में रात भर जगाये रखती है ।

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