दिन आए राग पराली के
रवि अरोड़ा
विगत शनिवार को देहरादून से लौट रहा था । रात का समय था । रास्ते में अनेक जगह खेतों से धुआं उठता दिखाई दिया । जाहिर है कि इन खेतों में पराली जलाई जा रही थी । चूंकि पराली को लेकर राज्य सरकारें दिन प्रति दिन सख्ती की बातें करती हैं इसलिए पराली दिन के बजाय रात के अंधेरे में जलाई जा रही थी । मगर पता नहीं क्यों एनसीआर और आस पास की दस करोड़ की आबादी के प्रति किया जा रहा यह गुनाह मुझे अधिक गुस्सा नहीं दिला पा रहा था । मेरा मन तो इस सवाल के हवाले ही रहा कि क्या इस समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं है ? क्या किसानों को कोसने, प्रतिबंध लगाने, एफआईआर दर्ज करने अथवा जुर्माना लगाने भर से मानवता के प्रति यह अपराध रुक जाएगा अथवा कोई अन्य कारगर उपाय भी खोजना होगा ? क्योंकि सरकारों की सख्ती भरी बातों से यदि काम चलता तो पराली का जलावन अब तक रुक जाता । यदि नहीं रुक रहा तो क्या अब कुछ और नहीं सोचना पड़ेगा ?
सब जानते हैं कि मानसून की वापसी पर मौसम में बदलाव के चलते वायु गति मंद पड़ जाती है और अक्टूबर नवंबर माह के इसी समय में हिमालय से आने वाली हवाओं से मौसम सर्द हो जाता है। यही समय होता है जब किसान रबी की फसल की तैयारी कर रहा होता है और उसके पास बुआई के लिए मात्र 20 दिन ही बचते हैं। इन बीस दिनों में उसके लिए यह संभव नहीं हो पाता कि खरीफ की पिछली फसल की कटाई के बाद रह गए धान के ठूंठ को खेत से हटा सके । नतीजा वह इस ठूंठ को जला देता है और जिससे करोड़ों लोगों के समक्ष सांस का संकट खड़ा हो जाता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की लगभग 70 लाख हैक्टेयर भूमि पर धान की बुआई होती है और उससे 40 कुंतल प्रति एकड़ फसल का अवशेष उत्पन्न हो जाता है मगर कमाल देखिए कि इस अवशेष के लिए आज तक कोई कारगर योजना ही नहीं बन सकी है। एक जमाने में जब किसान हाथों से धान की कटाई करता अथवा करवाता था तब यह समस्या नहीं थी मगर हरित क्रांति के बाद मशीनों से शुरू हुई कटाई से लाख चाहने पर भी खेत में पराली बच ही जाती है। चूंकि इस बची पराली का निस्तारण खर्चीला है । नतीजा पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा किसान इसे जला कर अपनी जान छुड़ाता है। हो सकता है कि किसान की इस समस्या के प्रति आपकी सहानुभूति न हो मगर किसान की इस समस्या को समझे बिना यदि कोई समाधान आपके पास हो तो बताइए ।
यकीनन करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए । आज जब उत्तरी भारत के दस में से तीन परिवारों में सांस का रोगी मिल रहा हो तो हर सूरत इंसानी स्वास्थ्य के इर्द गिर्द ही तमाम योजनाएं बननी चाहिए । मगर सुप्रीम कोर्ट का तो गला बैठ गया सरकारों को फटकार लगाते लगाते लेकिन हमारी सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंगी । हमारी सरकारें किसान के खिलाफ कार्रवाई से तो डरती ही हैं साथ ही आम आदमी की सेहत से हो रहे खिलवाड़ पर भी चुप्पी साध लेती हैं। जानकार बताते हैं कि धान की खेती का विकल्प किसानों को सुझाए बिना इस समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता । बेतहाशा पानी से होने वाली धान की इतनी अधिक खेती देश के लिए कतई मुफीद नहीं है मगर उगाए जा रहे लाखों टन चावल के सहारे अपने निर्यात के आंकड़े को ऊंचा रखने के लिए सरकारें धान की खेती को प्रोत्साहित ही करती जा रही हैं । समझ नहीं आता कि यदि सरकार को विदेशी मुद्रा इतनी प्यारी है तो क्यों नहीं वह पराली के निस्तारण हेतु किसानों को एमएसपी के अतिरिक्त अन्य धनराशि देती ? क्या सरकार को यह आंकड़ा समझ नहीं आता कि धान से हुई कमाई से अधिक तो उसे सांस के रोगियों पर खर्च करना पड़ जाता है। मगर हाय री हमारी सरकारें ! वे जानती हैं कि केवल दो तीन महीने की ही तो बात है। थोड़ा बहुत हो हल्ला होगा । अख़बारों में खबरें छपेंगी। टीवी पर चिलपों होगी और फिर सब ठीक हो जाएगा । मौसम बदलेगा और फिर हर बार की तरह देश हिन्दू मुस्लिम करने में व्यस्त हो जाएगा ।