दशहरा पर मीटू
रवि अरोड़ा
इस बार भी हम सब ने दशहरे पर अपनी मौजूदगी में रावण के पुतले को धूम धड़ाके से जलवाया। हर बार की तरह इस बार भी रावण दहन की ख़बरें बुराई पर अच्छाई व असत्य पर सत्य की जीत के रूप में मीडिया में देखी-पढ़ीं । मेरी तरह शायद आपके मन में भी यह सवाल कौंधता होगा कि रावण और उसके क़ुटुम्भ के वध को हम सत्य की असत्य पर जीत के रूप में क्यों मनाते हैं ? रावण का एसा क्या दोष था जो हमने उसे असत्य का पक्षधर मान लिया ? सीता हरण के अतिरिक्त अन्य कोई बड़ा अपराध तो शायद उसने नहीं किया था । किया भी हो तो एसी कोई बड़ी बात महर्षि वाल्मीकि ने रामायण और गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस में तो नहीं बताई ।
तो क्या हमारे पूर्वजों इस हद तक संवेदनशील थे कि रावण द्वारा एक स्त्री की स्वतंत्रता , उसके सम्मान और उसके शील पर हमले को उन्होंने अक्षम्य अपराध माना और उसे इस क़दर भर्त्सना के योग्य पाया कि हर साल प्रतीक रूप में रावण के पुतले को जलाने का ही निर्णय ले लिया । दशहरे की ख़बरें अख़बार में पढ़ते हुए अपने पूर्वजों की मंशा को जब समझने का प्रयास करता हूँ तो आदर से सिर झुक सा जाता है और अभिमान होता है कि हम स्त्रियों के सम्मान के प्रति समर्पित एसे समाज का हिस्सा हैं । मगर अख़बार के कुछ और पन्ने पलटता हूँ तो वहाँ मीटू अभियान से जुड़ी ख़बरें नज़र आती हैं । अपने शील और सम्मान पर हुए हमले के ख़िलाफ़ बड़े बड़े लोगों से जूझती महिलाओं का अकेला पड़ता समर वहाँ पसरा मिलता है । वही लोग इन महिलाओं पर मुक़दमे करते दिखाई पड़ते हैं जो स्वयं को सीता के साथ और रावण के ख़िलाफ़ घोषित करते आए हैं । हम सब लोग भी जाने अनजाने उन बड़े लोगों के साथ ख़ुद को जोड़ने का प्रयास कर रहे दिखते हैं और मीटू अभियान का मज़ाक़ उड़ाते चुटकुले सोशल मीडिया पर छोड़ कर ख़ुश होते रहते हैं । सीता के खेमे में खड़े होने वाले हम लोगों का यह कौन सा रूप है जो रावणों का हिमायती है ? यह हमारा कौन सा समाज है जो है तो सीता के साथ मगर गीत रावण के गाता है । क्या सीता की पक्षधरता हमारा कोई पाखंड है और यदि नहीं तो हम समाज के प्रभावी लोगों से जूझती इन महिलाओं का साथ क्यों नहीं दिख रहे ?
हैरानी होती है महिलाओं के सम्मान की इस लड़ाई में महिलायें ही पलीता लगा रही हैं । आज ही सोशल मीडिया में एक प्रभावी महिला का विडियो देखा जिसमें वह दावा कर रही है कि मीटू से महिलाओं का ही नुक़सान होगा और लोगबाग़ डर कर उन्हें काम ही नहीं देंगे । यह भी कहा जा रहा है कि एसे अभियान वही महिलायें चला रही हैं जो ख़ुद को कभी महिला अधिकारों की रहनुमा कहती थीं । कोई यह भी कह रहा है कि यह पुरुष उत्पीड़न ,मौक़ापरस्ती अथवा ब्लैकमेलिंग का कोई रूप है और इस अभियान का महिला अधिकारों से कोई लेना देना नहीं है । इसे भविष्य में किसी बड़े ख़तरे के रूप में भी कुछ कथित विद्वान लोग आंक रहे हैं । कोई नहीं कह रहा कि यह केवल आइसबर्ग है और चंद महिलाओं का मामला भर नहीं है । खेत में काम कर रही किसी महिला मजदूर से लेकर ग्लैमर के बड़े बड़े क्षेत्र की यही दास्ताँ है । हर जगह रावण बैठे हैं और राम ढूँढे से नहीं मिल रहे । राम कथा के राम से हम कोई सीख नहीं ले रहे । रावण का अंत हमें कहानी भर लगता है । तभी तो हम भीतर के राम को विश्राम की भूमिका में रखे हुए हैं और रावण का अंत करना हमें ज़रूरी नहीं लगता । कहीं एसा तो नहीं कि दशहरे पर रावण दहन हम कर ही इस लिए रहे हों कि निजी जीवन में हमें अपने रावण से कुछ अप्रिय कहना न पड़े । शायद यही वजह हो जो हमने अपने भीतरी राम को भी चौदह वर्ष नहीं वरन आजीवन वनवास पर भेज दिया है और दशहरे पर राम की पूजा हमारा कोई कर्मकांड भर है । अब आप कुछ कहिये ।