तेरी टोली मेरा टोला

रवि अरोड़ा

बहुत साल पहले कहीं पढ़ा था कि इंसान दो तरह की लड़ाई में ही पूरी उम्र लगा रहता है । पहली पेट की और दूसरी पहचान की । पेट की लड़ाई जीतते ही हम पहचान की लड़ाई में कूद जाते हैं और तमाम उम्र उसके लिए ही संघर्ष करते रहते हैं । हाल ही में दिल्ली में एक सिख आटो ड्राईवर और उसके किशोर पुत्र की पुलिस द्वारा की गई बेरहमी से पिटाई और उसके बाद दिल्ली और अन्य क्षेत्रों के सिखों में आए उबाल ने मुझे पेट और पहचान की लड़ाई वाली बात एक बार फिर याद दिला दी । अब आप कह सकते हैं कि सिख ड्राईवर की पिटाई का पहचान की लड़ाई से क्या लेना देना ? तो चलिए आज इसी पर बात कर लेते हैं ।

अव्वल तो दिल्ली का सिख आटो ड्राईवर कांड अधिकारिक जाँच और अदालती प्रक्रिया तक आ गया है अतः उस पर बहुत ज़्यादा टीका टिप्पणी ठीक नहीं है । यूँ भी मेरा मंतव्य उस घटना पर नहीं वरन उस पर हुई प्रतिक्रियाओं पर बात करने का है , अतः क्या हुआ क्यों हुआ पर ज़्यादा चर्चा नहीं करूँगा । बस रह रह कर मन में यह सवाल ज़रूर आता है कि सोशल मीडिया पर वायरल हुई विडियोज में जब सिख ड्राईवर बार बार कृपाण से पुलिस कर्मियों को धमका रहा है और पकड़ने की कोशिश कर रहे पुलिसकर्मी के सिर पर कृपाण से प्राणघातक वार कर रहा है , उसके जवाब में पुलिस को क्या करना चाहिये था ? सीआरपीसी और पुलिस एक्ट के हवाले से बात करें तो पुलिस को पूरा अधिकार है कि सार्वजनिक रूप से हथियार के बल पर आतंक फैला रहे किसी व्यक्ति को क़ाबू करने अथवा गिरफ़्तार करने के लिए वह ‘उचित बल‘ प्रयोग कर सकती है । चूँकि एक्ट में ‘उचित बल‘ शब्द की विस्तृत व्याख्या नहीं है , अतः सब कुछ मौक़े पर मौजूद पुलिस कर्मियों के विवेक पर ही निर्भर करता है । उधर सिख ड्राईवर के पास कृपाण उसके धार्मिक चिन्ह रखने के अधिकार के तहत थी मगर वह चिन्ह जो कि हथियार भी है , उसे सार्वजनिक रूप से लहराने और उससे किसी पर घातक हमला करना आपराधिक धाराओं का मामला था अतः वह यक़ीनन सज़ा के योग्य है । तस्वीर के दूसरे रूख की बात करें तो किसी भी सामान्य नागरिक को यह बात हज़म नहीं हो रही कि पुलिस ने सिख ड्राईवर के किशोर पुत्र को भी बेरहमी से पीटा जो न केवल पूरी तरह निर्दोष था अपितु बेक़ाबू अपने पिता से कृपाण छीनने में एक तरह से पुलिस की मदद ही कर रहा था ।अब क्या सही था और क्या ग़लत चलिये यह सब अदालत पर छोड़ते हैं और अपने मूल विषय पर लौटते हैं । मेरा मुख्य सवाल तो यही है कि इस घटना की प्रतिक्रिया में सिख बिरादरी ने जो किया क्या वह उचित था ? विरोध प्रदर्शन के नाम पर देश की राजधानी में घंटों अराजकता और तोड़फोड़ तथा पुलिस अधिकारी और कर्मियों की पिटाई कहाँ तक जायज़ है ? क्या सिखों ने यह सब इसलिए किया कि पिटने वाला भी सिख था ? यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि यदि सिख की जगह कोई मुस्लिम होता तो क्या तब भी सिख नेता एसा करते ? ज़ाहिर है तब सड़क पर कोहराम मचाने का अधिकार मुस्लिमों के पास होता । यानि घटना इतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि पीड़ित का धर्म अथवा उसका समूह है ।

इस घटना के बहाने ही सही मगर ग़ौर से देखें तो हम पूरी तरह से छोटे छोटे समूहों में विभाजित समाज होते जा रहे हैं । हम अपने ख़ास समूह में ही ख़ुद को सुरक्षित समझते हैं और उस समूह में ही अपनी पहचान ढूँढते रहते हैं । पूरी मानवता अथवा देश-प्रदेश में अपनी पहचान बनाना हमें बड़ा अथवा असम्भव काम लगता है अतः हम अपने धर्म अथवा जाति का कोई स्वाभाविक समूह तलाशते हैं और फिर आराम से पहचान की किसी छोटी सी लड़ाई में कूद पड़ते हैं । राजनीतिज्ञों को भी यह छोटे छोटे समूह सुहाते हैं और वे भी इन्हें महिमा मंडित करते हैं । तमाम सामाजिक संस्थाओं , क्लब , जातिगत और सामाजिक संघटनों के नाम पर हम यही सब तो कर रहे हैं । दिल्ली में उत्पात मचाने वाले सिख नेता अच्छी तरह से जानते थे कि बिरादरी के संघटन में अपनी कुर्सी बचानी है तो कुछ बड़ा करना पड़ेगा । जिन्हें ख़ुद की नेतृत्व क्षमता साबित करनी हो, उनके लिए भी एसी घटनाएँ सही मौक़े होते हैं । सब तरफ यही तो यही हो रहा है । अब तो हम उन्हें भी अपनी छोटी पहचान में लाने में लगे हैं जिन्होंने कभी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। तभी तो आज सभी देवी-देवता और महापुरुष अपनी जाति के लोगों तक सीमित किए जा रहे हैं । परशुराम जयंती पर कोई दलित बधाई नहीं देता और अग्रसेन जयंती पर कोई ब्राह्मण आगे नहीं आता । अब तो बस दुआ कीजिए कि हम समूहों से टोलियों पर ना आ जायें और फिर इतिहास में गुम हो चुके कबीलों की तरह व्यवहार न करने लगें और तेरी टोली मेरा टोला न करने लगें ।

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