तय हो सहूलियत और भीख का अंतर
तय हो सहूलियत और भीख का अंतर
रवि अरोड़ा
दिल्ली के विधान सभा चुनाव डराते हैं। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने को सभी राजनीतिक दल जिस तरह से ‘ मुफ्त मुफ्त मुफ्त ‘ की हांक लगा रहे हैं, उससे चिंता होने लगी है कि यह चूहा दौड़ प्रतियोगिता आखिर कहां जाकर रुकेगी ? आम आदमी पार्टी महिलाओं को इक्कीस सौ रुपया महीना देने की घोषणा करती है तो बीजेपी और कांग्रेस पच्चीस सौ की बोली लगा देती हैं । एक पार्टी मुफ्त इलाज की बात करती है तो दूसरी तुंरत मुफ्त बसों और मेट्रो में यात्रा की सहूलियत देने की बात करने लगती है। एक दल गर्भवती महिलाओं को 21 हजार देने का वादा करता है तो दूसरा झट से बुजुर्गों को पेंशन देने का ऐलान कर देता है। केजी से पीजी तक की मुफ्त शिक्षा, पांच सौ में गैस का सिलेंडर, ऑटो और टैक्सी चालकों को मुफ्त बीमा और प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वाले छात्रों को अलग से धनराशि जैसी घोषणाएं भी दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने की आकांक्षी तीनों पार्टियां आप, बीजेपी और कांग्रेस की और से लगातार किश्तों में की जा रही हैं। एक दौर था जब चुनाव से पूर्व पार्टियों का एक बार ही घोषणा पत्र जारी होता था मगर अब धारावाहिक की किश्तों की तरह वादों की नित नई सीरीज आ रही हैं। बेशक अब चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं मगर इन दलों के पिटारे से अभी और क्या कुछ निकलेगा, कहा नहीं जा सकता ।
सरकारों द्वारा कल्याण कारी योजनाएं चलाना किसी भी विकासशील देश के लिए अवश्यंभावी हैं मगर अपनी सरकार बनाने के लिए पार्टियों द्वारा ‘ सेल सेल सेल ‘ जैसी गला फाड़ हांक कहां तक जायज है ? बेशक आजादी के बाद से ही किसी न किसी रूप यह राजनीतिक कुटिलता दिखाई पड़ती ही रही है मगर इस सच्चाई से कोई कैसे इनकार करेगा कि इस नंगई को दस साल पहले दिल्ली के विधानसभा चुनावों में मान्यता दिलवाई आम आदमी पार्टी ने ही । केजरीवाल के इस दांव पर देश भर में बहसें हुईं और एक सुर में इसे जनता के बीच रेवड़ियां बांटने की उपमा दी गई । मगर अब इस मोर्चे पर भाजपा उससे भी आगे निकल गई है। कमाल की बात है कि स्वयं नरेन्द्र मोदी ने ही इस नीति को सबसे पहले रेवड़ी कल्चर कहा था मगर बाद में खुद उन्होंने ही अस्सी करोड़ लोगों को हर माह मुफ्त राशन देकर दुनिया की सबसे बड़ी खैरात का रिकॉर्ड अपने खाते में दर्ज करवा लिया । इसके अतिरिक्त मुफ्त बीमा, मुफ़्त गैस कनेक्शन और किसानों को नकद पैसे देने जैसी योजनाएं चला कर भी उन्होंने केजरीवाल के इस दांव को मीलों आगे तक पहुंच दिया । केन्द्र की गद्दी पर काबिज होने के बाद कई राज्यों में भी चुनावी जीत हासिल करने को भाजपा ने ऐसी ही अनोखी योजनाओं की घोषणा कर दी । सर्वविदित है कि देश में लगभग हर तीन माह में कहीं न कहीं विधानसभा चुनाव होते हैं और देश का दुर्भाग्य देखिए कि हर चुनाव में खैरात बांटने का यह सिलसिला और अधिक तेजी से आगे बढ़ जाता है। यह हालत तो तब है जब आधे से अधिक राज्यों की माली हालत पतली है। शराब की दुकानों , पेट्रोल डीजल के टैक्स और जीएसटी में राज्य की हिस्सेदारी से ही उनके खर्चे चलते हैं। अधिकांश राज्यों की अस्सी फीसदी आमदनी तो केवल वेतन और पेंशन आदि बांटने में ही उड़ जाती है। बंगाल, पंजाब और आंध्र प्रदेश आकंठ कर्ज में डूबे हुए हैं और बिहार, झारखंड , ओडिशा, तेलंगाना और उत्तराखंड की भी माली हालत पतली है। हिमाचल प्रदेश के पास तो वेतन बांटने तक के भी पैसे नहीं हैं। क्या यह अजब नहीं कि ऐसे माहौल में भी गैर उत्पादक खर्च बढ़ाने की होड़ सी राजनीतिक दलों में लगी हुई है ?
यकीनन जनता सरकारों से अपने लिए सहूलियतें चाहती है । यह सहूलतें उसे मिलनी भी चाहिएं मगर सहूलियतों और भीख में कुछ तो अंतर होता होगा ? चलिए इन घोषणाओं को भीख न कह कर सहूलियत ही मान लेते हैं मगर इसके लिए पैसे कहां से आएंगे ? आधे अधूरे राज्य दिल्ली को ही देख लीजिए। इसका कुल बजट 78 हजार 800 करोड़ रुपए का है। लगभग 45 हजार करोड़ रुपया वेतन और पेंशन आदि में खर्च हो जाता है। सरकार किसी भी दल की बने मगर उसे अपने वादा पूरा करने को कम से कम 20 हजार करोड़ रुपया तो उसपर खर्च करना ही होगा। बाकी बचे थोड़े से पैसे से क्या दिल्ली की 1792 कच्ची कॉलोनियों का उद्धार, प्रदूषण नियंत्रण, यमुना की सफाई और अन्य विकास कार्य संपन्न हो जाएंगे ? क्या दिल्ली के चुनाव का सबसे बड़ा और असली मुद्दा यही नहीं है ? क्या पर बात नहीं होनी चाहिए ? मगर अजब स्थिति है कि इस पर चहुं ओर चुप्पी सी पसरी है।