तंत्र में लोक

रवि अरोड़ा

गणतंत्र दिवस के पर्व पर राजधानी में हुई परेड और निकलीं भव्य झाँकियाँ टेलिविज़न पर देख कर मुझमें उत्साह का अजब सा संचार हुआ । यक़ीनन आपने भी एसा ही महसूस किया होगा । अपने देश को यूँ आगे बढ़ता देखकर भला कौन गौरवान्वित नहीं होगा ? सचमुच गण के तंत्र में हमारी आस्था हमें कहाँ से कहाँ ले आई । कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो अख़बार उठा लिये । गणतंत्र दिवस की मुबारकबाद देने वाले विज्ञापनों से जान बचा कर इधर उधर छुपी ख़बरों पर जब निगाह डाली तो गणतंत्र दिवस का जोश कुछ ही देर में फीका पड़ना शुरू हो गया । दरअसल पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की ख़बरों ने पूरी तरह मुँह का ज़ायक़ा ही बिगाड़ दिया । मतदाताओं को लुभाने को राजनीतिक दलों के वादों और उनके ऊलजलूल बयानों से अख़बार अटे पड़े थे। अरे यह हो क्या रहा है ? हमारे राजनीतिक दल चुनावी वादे कर रहे हैं या हमारे वोट की क़ीमत लगा रहे हैं ? कोई मुफ़्त दूध दे रहा है तो कोई देशी घी देने की बात कर रहा है । कोई लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन का लालच दे रहा है तो कोई सीधे नक़द ही देने की बात कर रहा है । क्या यही लोकतंत्र है ? क्या वाक़ई हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ?

याद आता है कि मतदाताओं को प्रलोभन देने की शुरुआत दक्षिण राज्यों से शुरू हुई थी । मुफ़्त और रियायती दरों पर आटा , चावल , साड़ी से लेकर टेलिविज़न , मंगलसूत्र , सेनेट्री नेपकिन और सिनेमा के टिकिट तक ना जाने क्या क्या बाँटे गए । दक्षिण के इस फ़ार्मूले के हिट होते ही उत्तर भारत में भी पिछले कुछ सालों से इस पर भरोसा किया जाने लगा है । पंजाब की बादल सरकार किसानो को मुफ़्त बिजली , यूपी की अखिलेश सरकार मुफ़्त लैपटॉप और दिल्ली की केजरीवाल सरकार मुफ़्त वाईफ़ाई और रियायती दरों पर बिजली-पानी देने के नाम पर सत्ता में आई । हालाँकि मतदाताओं के मनोविज्ञान को समझने की कुव्वत मुझमें नहीं मगर लगता तो यही है कि लोकतंत्र के नाम पर देश भर में मची लूट में अब मतदाता भी अपना हिस्सा चाहने लगा है । आए दिन के घोटालों और मंत्री-संतरियों की दिनो दिन होती आर्थिक प्रगति उसे भी बंदरबाँट में शामिल होने को प्रेरित करने लगी है । मतदाता अब इसे अपनी नियति माने बैठा है कि सरकार एक तरफ़ शिक्षा के अधिकार की बात करे और दूसरी ओर शिक्षा का बजट घटा दे । उसे अब क़तई बुरा नहीं लगता कि जिस देश में साढ़े आठ करोड़ बच्चे स्कूल ना जाते हों वहाँ शिक्षा का बजट केवल ढाई फ़ीसदी हो । जहाँ हज़ारों लोग प्रतिदिन साधारण बुखार में भी मर जाते हों वहाँ स्वास्थ्य का बजट डेड फ़ीसदी हो । परिवहन पर सवा दो और महिलाओं व बच्चों के लिए एक फ़ीसदी ख़र्च भी ना किए जाने को भी अब मतदाता बिलकुल अन्यथा नहीं ले रहा । उसे अब लगता ही नहीं कि यही सब काम करने को ही सरकारें बनाई जाती हैं ना कि रेवड़ियाँ बाँटने के लिए।

हैरानी होती है कि हमारा चुनाव आयोग यह सब देख कर भी ख़ामोश क्यों है ? पिछली आधी शताब्दी से रेवड़ियाँ बाँटने के साथ साथ कभी ग़रीबी हटाने , कभी रोज़गार मुहैया कराने , कभी शिक्षा और कभी मंडल-कमंडल और ना जाने क्या क्या झूठे वादे कर मतदाताओं के वोट लूट लिए जाते हैं । राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में लिखित रूप से एक से बढ़ कर लोकलुभावने वादे करते हैं और चुनाव जीतने के बाद फिर उस ओर देखते भी नहीं । क्या यह मतदाताओ के साथ ठगी नहीं है ? क्या एसे राजनीतिक दलों और नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधिक अथवा दीवानी मुक़दमा दर्ज नहीं होना चाहिए ? आख़िर चुनाव आयोग क्यों नहीं देखता कि संविधान की उपेक्षा कर जाति और धर्म के नाम पर ना केवल वोट माँगे जा रहे हैं बल्कि जनता की गाढ़ी कमाई मंदिरों, मस्जिदों और हज हाउसों पर लुटाई जा रही है । क्या चुनाव आयोग और कमोवेश पूरी व्यवस्था की यह ज़िम्मेदारी नहीं कि वह मतदाताओं को भी शिक्षित करे जो मान ही बैठे हैं-मैने माना कि कुछ नहीं `ग़ालिब’

मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है ।

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