ढट्ठे खू विच जा
रवि अरोड़ा
पाकिस्तान की सबसे चर्चित फ़िल्मों में से एक है- खुदा के लिए । इसमें बॉलीवुड स्टार नसीरुद्दीन शाह ने भी एक महत्वपूर्ण किरदार निभाया है । एक मुक़दमे को इस्लाम की नज़र से देखने के लिए अदालत में इस्लामिक स्कॉलर का बयान दर्ज होता है और मौलाना बने नसीरुद्दीन शाह इस्लाम की जो व्याख्या करते हैं वह पूरी दुनिया के मुस्लिम कट्टरपंथियों के मुँह पर एक के बाद एक तमाचे जड़ती जाती है । क़ुरान शरीफ़ और अहले हदीस की रौशनी में मौलाना इस्लाम को समझाते हुए कहते हैं कि गीत-संगीत खुदा को क़तई नापसंद नहीं हैं और न ही पैग़म्बर मोहम्मद गीत-संगीत के विरोधी थे । इस्लामिक हुलिये का मज़ाक़ उड़ाते हुए मौलाना लम्बे कुर्ते और छोटे पायजामे पर भी तंज कसते हैं और लम्बी दाढ़ी वालों से कहते हैं कि दीन में दाढ़ी है , दाढ़ी में दीन नहीं । मौलाना इस्लाम की जो परिभाषा बताते हैं वह उन तमाम नौटंकियों को ख़ारिज करती है जो इस्लाम के नाम पर आज हो रही हैं । आमिर खान के साथ फ़िल्म दंगल और सीक्रेट सुपरस्टार के ज़रिये वाक़ई सुपर स्टार बनी बॉलीवुड एक्ट्रेस ज़ायरा वसीम ने हाल ही में जब कहा कि फ़िल्मों की वजह से वह अपने धर्म से दूर हो रही है और इसी वजह से भविष्य में वह फ़िल्मों में काम नहीं करेगी तो मुझे ‘ खुदा के लिए ‘ के मौलाना बने नसीरुद्दीन शाह बहुत याद आये । साथ ही कश्मीर से निकली उम्मीद की इस किरण के यूँ फ़ना हो जाने के फ़ैसले पर ग़ुस्सा भी बहुत आया । सभी मानते हैं कि ज़ायरा पिछले बीस पच्चीस सालों में कश्मीर के उन चंद युवाओं में से एक थी जिसने घाटी की युवा पीढ़ी को देश की मुख्य धारा से जोड़ा था और अब उसके यूँ घर बैठ जाने की घोषणा से कठमुल्लों को अन्य मुस्लिम युवाओं को बरगलाने का हथियार सा ही मिल गया है ।
दुनिया के तमाम धर्मों की तरह इस्लाम की भी अनेक व्याख्याएँ हैं । इस्लाम में शिया और सुन्नी अपने अपने नज़रिए को लेकर न केवल एक दूसरे से नफ़रत करते हैं अपितु उनसे जुड़े देश आपस में युद्ध भी करते रहते हैं । हमारे देश में देवबंदियों और बरेलवियों का मनमुटाव काफ़ी पुराना है । वहाबी और अहमदियों को लेकर भी झगड़े हैं । ख़ास बात यह है कि हमारी बॉलीवुड को लेकर उन सबका नज़रिया एक ही है और वे इनके पेशे ‘ नाचने गाने ‘ को हराम का ही दर्जा देते हैं । अब यह बात अलग है कि देश का आम मुस्लिम अपने आकाओं के नज़रिए की क़तई परवाह नहीं करता और मुस्लिम फ़िल्मी कलाकारों को सिर आँखों पर बैठाता है । मुस्लिम ही क्यों हिंदू और अन्य धर्मों के लोग भी उनके दीवाने हैं । यहाँ बड़ी फ़िल्मे ईद पर रिलीज़ होती हैं और ब्लॉकबस्टर साबित होती हैं । बेशक इन नाचने-गाने वालों को कोई कितनी भी हिक़ारत की नज़र से देखे मगर देशवासियों के मनोरंजन और युवा पीढ़ी को नए नए सपने दिखाने में इन फ़िल्मों बहुत बड़ा योगदान है । विदेशों में भी हमारे नेताओं की इतनी पूछ नहीं होती जितनी इन कलाकारों की होती है । इन कलाकारों ने भी और कुछ किया हो अथवा नहीं मगर धर्मों को निजी जीवन में दख़लंदाज़ी नहीं करने देने की नसीहत ज़रूर दी है । शायद यही वजह है कि फ़िल्म इण्डस्ट्रीज में शादी-ब्याह के मामले में धर्म कभी आढ़े नहीं आ सका और हिंदू-मुस्लिमों में ख़ूब शादियाँ हुईं और आज भी हो रही हैं । इन ‘ नाचने गाने वालों ‘ ने खुलेपन के नाम बेशक फूहड़ता भी परोसी है मगर समाज को कट्टरपंथियों के चंगुल से बचा कर प्रगतिशीलता की ओर अग्सर करने में भी इनकी भूमिका कम नहीं । तमाम अन्य धर्मों से जुड़े लोगों की तरह देश के करोड़ों युवा मुस्लिम भी इनसे रौशनी लेते हैं ।
कोई कह रहा है कि ज़ायरा कट्टरपंथियों के दबाव में एसा कर रही है तो कोई कह रहा है कि वह डिप्रेशन में है । बात कुछ भी हो मगर तीर तो चल चुका है । ज़ायरा इस्लाम के नाम ग़लत उदाहरण तो पेश कर ही चुकी है । यह तो दावा कर ही बैठी है कि फ़िल्मे धर्म की राह में बाधा हैं । अब ज़ायरा यदि कश्मीरी न होती तो उसके बयान के इतने गहरे अर्थ नहीं निकलते । फ़िल्में छोड़ने को अपने धर्म से न जोड़ती तब भी शायद बात इस मोड़ तक न आती । और यदि वह मुस्लिम न होती तब भी उसकी घोषणा संक्षिप्त ख़बर से अधिक कोई अहमियत न रखती मगर आज जब कश्मीर को देश से काटने की साज़िशें रची जा रही हैं और देश के युवा मुस्लिमों को इस्लाम की ग़लत व्याख्याएँ बता कर कट्टरपंथ की गलियों में भटकाने के प्रयास हो रहे हैं , एसे में ज़ायरा जैसे बेवक़ूफ़ लोग आग में घी जैसा काम ही कर जाते हैं । एसे मे ज़ायरा तुम्हारे लिए मुँह से यही निकल रहा है- ढ़ट्ठे खू विच जा यानि भाड़ में जाओ ।