डर टपके का
रवि अरोड़ा
बचपन में यह कहानी ख़ूब कही-सुनी थी । मूसलाधार बरसात में एक ग़रीब की झोंपड़ी के बाहर आकर छुपा शेर किसान और उसकी पत्नी के बीच हो रही वार्तालाप से भयभीत हो उठता है । दरअसल किसान इस बात से बेहद चिंतित था कि कहीं बरसात में उनकी झोंपड़ी न टपकने लगे । इसी को लेकर उसने अपनी पत्नी से कहा कि शेर से अधिक डर टपके से लगता है । यह सुनकर शेर भी सोच में पड़ जाता है कि क्या उससे भी अधिक ताक़तवर कोई है जिसका डर मुझसे भी अधिक किसान को है ? क़ोरोना संकट में भी अब शेर से अधिक टपके का डर लोगों को सता रहा है । लोगबाग़ यही सोच कर निडर हो गए हैं अपनी पुरानी दिनचर्या पर लौट आये हैं कि क़ोरोना से पता नहीं मरेंगे अथवा नहीं मगर यूँ ही घर में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो भूख से ज़रूर निपट जाएँगे ।
दिवाली के इस सीज़न में बाज़ारों में ख़ूब रेलमपेल नज़र आई । सड़कों पर जाम लग गये और आदमी पर आदमी चढ़ा दिखा । कहीं से नहीं लगा कि दुनिया भयानक महामारी की चपेट में है । सोशल डिसटेंसिंग किस चिड़िया का नाम है , जैसे किसी को पता ही नहीं । किसी को भी मास्क की परवाह नहीं और सुरक्षा के अन्य तरीक़े भी जैसे बिला गये । देख-सुन का मन बेहद खिन्न हुआ मगर टपके की बात याद आते ही ख़ुद को समझाना भी पड़ा । स्वयं को वह सर्वे भी याद कराना पड़ा जो हाल ही में अख़बारों की सुर्खियों में था । यह सर्वे दावा करता है कि लॉक़डाउन के बाद से लोगों की नौकरियाँ छुट गई हैं और काम धंधे ठप हैं सो चालीस परसेंट लोग फ़िलवक्त रिश्तेदारों और यार-दोस्तों से उधार लेकर काम चला रहे हैं । हालाँकि व्यापार और उद्योगों के कुछ क्षेत्रों में पहले जैसी रौनक़ लौट आई है मगर अधिकांश जगह अभी भी मंदी का असर है । यही वजह है कि लोग बाग़ अब कोरोना से नहीं आर्थिक संकट से अधिक डर रहे हैं ।
कल एक दुकानदार मित्र से बात हुई । त्योहारी सीज़न में उसके द्वारा बरती गई लापरवाही पर मैं उसे भाषण पिलाने के मूड में था मगर उसने मेरी ही क्लास ले ली । उसका कहना था कि भारत समेत पूरी दुनिया में मात्र एक फ़ीसदी लोगों को कोरोना हुआ है । उसमें भी मरने वालों की संख्या दो परसेंट से कम है । उसका सवाल था कि मैं उसे कोई कारण बताऊँ कि आख़िर किस वजह से मैं दुकान बंद कर घर बैठ जाऊँ । उसका कहना था कि बैंकों की किस्त चालू हो गई हैं । बच्चों की स्कूल फ़ीस, राशन,दूध व दवा आदि का ख़र्च एक दिन भी नहीं रुका । अब एसे में आख़िर कब तक घर बैठ कर कोई खा सकता है ? उसकी किसी भी बात का मेरे पास उत्तर नहीं था अतः मैंने बस मास्क आदि की ताक़ीद कर अपनी जान छुड़ाई ।
दिल्ली में कोरोना अपने चरम पर पहुँच गया है । मेरे अपने शहर में भी रिकार्ड मरीज़ मिल रहे हैं । यह महामारी अब घर-घर पहुँच गई है । कौन बचेगा अथवा कौन इसका शिकार होगा, कहा नहीं जा सकता । समझ नहीं आ रहा कि क्या करें । जो बेवक़ूफ़ियाँ कर रहे हैं , इत्तेफ़ाकन वे अब तक बचे हुए हैं और जो सतर्क हैं , बदक़िस्मती वे शिकार हो रहे हैं । जिन्हें ठीक होना है वे घर पर रह कर भी ठीक हो रहे हैं और जिन्हें दुनिया छोड़नी है उन्हें लाख कोशिशों के बावजूद डाक्टर बचा नहीं पा रहे । अमीर-ग़रीब का कोई फ़र्क़ नहीं । छोटे-बड़े का कोई अंतर नहीं । सारे टोटके फ़ेल और सारे दावे हवाई । सुनते हैं इस मुसीबत की वैक्सीन आ गई है । आ गई है तो यक़ीनन सबको नसीब भी होगी । बस क़ुदरत तब तक सबको बचाये । मगर ये जो शेर से हमने डरना बंद किया है यह ख़तरनाक है । बेशक टपके का डर बड़ा है मगर फिर भी शेर शेर है और शेर से मखौल अच्छा नहीं ।