डरना पड़ता है
रवि अरोड़ा
मुझे अच्छी तरह मालूम है कि अति हिंदूवादी मेरी इन पंक्तियों को पढ़ कर चढ़ दौड़ेंगे और जम कर मेरी लानत-मलानत करेंगे मगर क्या करूँ सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम पर हो रहा यह मज़ाक़ देखा भी तो नहीं जाता । अब यह ख़बर तो आपने भी पढ़ी होगी कि अधिक गर्मी के कारण भगवान जगन्नाथ की तबियत ख़राब हो गई और वे भक्तों को ग्यारह दिन तक दर्शन नहीं दे सके । स्थानीय डॉक्टरों ने उनका इलाज किया और उन्हें आराम की सलाह दी ।यही कारण रहा कि उड़ीसा के प्राचीन जगन्नाथ मंदिर के कपाट उन ग्यारह दिनों के लिए बंद रहे । उधर, धर्मभीरू और कट्टर सनातनी पत्नी के साथ वृन्दावन में बाँके बिहारी के मंदिर गया तो वहाँ तैनात पंडे बार बार मूर्ति के आगे पर्दा कर देते थे । पूछने पर पता चला कि भगवान शर्मीले हैं और लगातार कोई उन्हें देखे तो शरमा जाते हैं । पर्दा लोगों की नज़रों से प्रभु को बचाने के लिए किया जाता है । भई यह तो हद हो गई । हालाँकि मैं मानता हूँ कि यह आस्था का मामला है और इसी के चलते मूर्ति को भक्त कलाकार द्वारा बनाई गई भगवान की छवि नहीं वरन साक्षात भगवान मान लेते हैं और यही कारण है कि मूर्ति के स्नान , कपड़े बदलने , भोजन और विश्राम आदि की व्यवस्था ठीक वैसे ही की जाती है जैसे वे साक्षात भगवान ही हों । अब यहाँ तक तो बात जैसे तैसे समझ आ जाती है मगर अब प्रभु के बीमार होने और डाक्टरों द्वारा उनके इलाज की बात तो बिलकुल हज़म ही नहीं हो रही ।
पता नहीं क्यों तमाम धर्म तर्क को अपना दुश्मन मानते हैं । हर जगह सवाल पूछने पर प्रतिबंध है ।सभी जगह आडंबर हैं और पाखंड भी । किसी ना किसी रूप में मूर्तिपूजा भी सभी जगह है । ईसाई भी ईसा और मरियम की मूर्ति के आगे मोमबत्ती जला रहे हैं तो मुस्लिम भी मज़ारों पर चादर चढ़ा रहे हैं । मुहर्रम पर ख़ुद को लहू-लुहान करने और ईद पर क़ुर्बानी जैसी बेतुकी परम्परायें वहाँ भी हैं । जैन संथारा के नाम पर आत्महत्या को महिमा मंडित कर रहे हैं तो हम हिंदू मंदिरों में स्त्रियों और दलितों की उपेक्षा कर रहे हैं और वीआईपी दर्शनों के नाम पर ग़रीब आदमी की उपासना का भी उपहास उड़ा रहे हैं । धर्म कोई भी हो उसकी कहानियाँ विज्ञान के आगे नहीं टिकतीं । उनकी तमाम मान्यताएँ तर्क की कसौटी पर भी फ़ेल होती नज़र आती हैं । इतिहास गवाह है कि जिस देश अथवा समाज ने तर्क का दामन छोड़ा वह गर्त में चला गया मगर फिर भी हम तर्क को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ रहे हैं । सवाल खड़े करना हमें धर्म विरोधी लगता है जबकि तार्किकता प्रश्नों से ही विकसित होती है ।
अब इसी तार्किकता का सहारा लेकर मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या ईश्वर बीमार हो सकता है और यदि हो सकता है तो क्या चिकित्सकों और इंसानी चिकित्सा पद्धति में इतनी ताक़त है कि वह ईश्वर का इलाज कर सके । चलिए माना कोई भी धार्मिक मान्यता जिससे किसी की हानि नहीं होती उसे आचरण में लाने में कोई हर्ज नहीं मगर एसी परम्पराओं के अक्षरश पालन से क्या हम अपने नौनिहालों की बुद्धि कुन्द नहीं कर देंगे ? मूर्तियाँ बौद्ध धर्म के प्रभाव के बाद दो-ढाई हज़ार साल पहले हमारे धर्म से जुड़ीं । ईश्वर की आराधना तो हम मूर्तियों के आगमन से पहले भी करते थे । मूर्तियों का ईश्वरीयकरण करते करते अभी हम और क्या क्या तमाशे करेंगे ? चलिए अब ज़्यादा सवाल नहीं करता । स्वामी अग्निवेश का दामन चाक हुए अभी कुछ घंटे ही हुए हैं और सवालों के विरोधी अभी जोश में हैं । क्या पता उनका मुँह मेरी ओर ही मुड़ जाए । डरना पड़ता है जी ।