ठेस के दायरे का विस्तार
रवि अरोड़ा
वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिमी बंगाल सरकार को त्रिपुरा से लाए गए शेर शेरनी के नाम बदलने के आदेश दे दिए हैं। सिलीगुड़ी सफारी पार्क में लाए गए शेर का नाम अकबर और शेरनी का सीता रखे जाने से नाराज विश्व हिन्दू परिषद ने अदालत का द्वार यह कह कर खटखटाया था कि इन नामों से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंच रही है। परिषद ने अदालत से यह भी मांग की थी कि शेर शेरनी के इस जोड़े को एक साथ न रखा जाए । जाहिर है कि अदालत को ऐसा आदेश देना ही पड़ता और उसने दिया भी मगर मुझ जैसे करोड़ों लोगों के लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है कि हमारी धार्मिक भावनाएं अभी और कितनी अधिक संवेदनशील होनी शेष हैं और आने वाले वक्त में अभी और किस किस बात पर वह आहत होंगी ?
बेशक हमारे समाज में धर्म को आदमी पर वरीयता प्राप्त है और ठेस लगने का खतरा भी सदैव धर्म को ही होता है मगर क्या कारण है कि मामला धर्म का होते ही हम बेहद सलेक्टिव हो जाते हैं और अपनी सुविधा अनुसार ही ठेस को ग्रहण करते हैं ? हाल ही में राम मंदिर के उद्घाटन में तमाम धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं की अवहेलना पर किसी धार्मिक संघटन की भावना आहत नहीं हुई मगर जानवर का नामकरण पौराणिक देवी देवता के नाम पर हुआ तो हल्ला मच गया । शायद इस पर भी इतना हल्ला न मचाया जाता यदि शेर शिकायतकर्ताओं के धर्म के अनुरूप होता और शेरनी दूसरे धर्म वालों के नाम जैसी होती । तब तो शायद मूंछों पर ताव ही दिया जाता मगर ऐसा नहीं था सो इन्हे अपनी इज्जत जाती दिखी और अदालत से यह मांग भी कर दी गई कि हमारी शेरनी को उनके शेर से अलग बाड़े में रखा जाए ।
धार्मिक भावनाएं आहत होना कानूनी दायरे में आता है और उसके उचित अनुचित होने पर सवाल उठाने का कोई औचित्य नहीं है मगर यह कामना करने के लिए तो हम सभी स्वतंत्र हैं न कि काश धार्मिक भावनाओं के साथ हमारी मानवीय भावनाएं भी कभी आहत हों और सुबह शाम आदमी और आदमियत की हो रही बेकद्री के खिलाफ भी कभी कोई अदालत का दरवाजा खटखटाए । लॉक डाउन में लाखों लोग भूखे प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों को पैदल चल पड़े थे । सैंकड़ों रास्ते में मर भी गए । कोरोना में न इलाज मिला और न ही मुर्दों को जलाने और दफनाने वाले । लाखों लोग मारे गए मगर संसद में सरकार ने फिर भी बयान दिया कि देश में एक भी आदमी आक्सीजन की कमी से नहीं मरा । क्या इससे देश में एक भी व्यक्ति की मानवीय भावना आहत नहीं हुई ? इसे लेकर क्या एक भी याचिका अदालत के दरवाजे तक पहुंची ? नोटबंदी में न जाने कितने बर्बाद हुए। आर्थिक मामलों में सरकार द्वारा परोसे गए नित नए झूठ पकड़े जाते हैं मगर देश की किसी व्यापारिक अथवा औद्योगिक संस्था की आर्थिक भावना आहत नहीं होती । लाखों ईवीएम गायब होने की खबरें सामने आईं मगर किसी भी जागरूक नागरिक की लोकतांत्रिक भावना आहत नहीं हुई । अपराधी दूसरे धर्म से संबंधित है तो बुलडोजर तुरंत पहुंच जाता है और अपने धर्म का हो तो सिर्फ कागजी कार्रवाई चलती है मगर किसी सामाजिक संस्था की सामाजिक भावना आहत नहीं होती । सीबीआई, ईडी और आईटी के दम पर विपक्षी दलों में खुलेआम सेंध लगाई जा रही है मगर किसी राजनीतिक कार्यकर्ता की राजनीतिक भावनाओं को ठेस नहीं लग रही। क्या ठेस लगने का ठेका सिर्फ धर्म के पास है ? चलिए माना कि हम भावनात्मक रूप से बेहद संवेदनशील समाज हैं और जानवरों के नामों पर भी हमें ठेस लग जाती है तो फिर क्या कारण है कि हमारी भावनाएं धर्म जैसे एक छोटे से दायरे में भटकती रहती हैं ? क्यों सदैव अपने विस्तार से इनकार ही करती रहती हैं ?