टोकना ज़रूर

रवि अरोड़ा

टीवी पर फ़िल्म आ रही थी- बजरंगी भाई जान । सलमान खान की इस सुपर हिट फ़िल्म में टीवी पर अदनान सामी क़व्वाली गा रहे थे- भर दे झोली मेरी । सुन कर दिल बाग़ बाग़ हो गया । केवल उम्दा क़व्वाली सुन कर नहीं बल्कि यह देख कर भी कि सात सौ साल पुरानी क़व्वाली परम्परा को हमने किसी न किसी रूप में आज भी संजो कर रखा तो है । बेशक क़व्वाली को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने का श्रेय हम अपनी फ़िल्मों को ही दें मगर दरगाहों और मज़ारों ने भी इसके मूल स्वरूप को आज तक बरक़रार रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है । अमीर खुसरो के उर्स के मौक़े पर अनेक बार उनकी दरगाह पर मेरा जाना हुआ । भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश के एक से बढ़ कर एक मशहूर क़व्वाल वहाँ अपने फ़न का मुज़ाहिरा करते मिले और वह भी निशुल्क । क़व्वाली के जनक अमीर खुसरो को इससे बड़ी श्रधांजलि कोई उनका मुरीद और दे भी क्या सकता है ।

सूफ़ी संगीत बेशक आज फ़ैशन बन गया है और शादी ब्याह के मौक़े पर जाम से जाम टकराते हुए भी लोग क़व्वाली का आनंद लेने लगे हैं मगर सही मायनो में न तो ये सूफ़ी संगीत है और न ही उनके गायक क़व्वाल हैं । रंग बिरंगे कपड़े पहन कर पाँच सात लोग तालियाँ और ढोलक पीटते पीटते शराब, हुस्न, बेवफ़ाई और नाज़ुक अदाओं पर कुछ अनाप शनाप गाने लगें तो वह सूफ़ी संगीत हो जाएगा क्या, क़व्वाली हो जाएगा क्या ? सूफ़ी संगीत तो भक्ति संगीत की वह अविरल धारा है जिसमें ये कुछ नाले भी अब आ मिले हैं । विद्वान बताते हैं कि अजमेर वाले मोइनुद्दीन चिश्ती के समय से भक्ति संगीत की यह पर्शियन परम्परा भारतीय उपमहाद्वीप में आई और अमीर खुसरो के प्रयासों से आम जन तक पहुँची । सूफ़ी संगीत की शैलियों क़सीदा, हम्द, नात, मनकबत, मर्सिया और मुनाजात की तरह क़व्वाली भी इसी का एक हिस्सा है जो दो जहाँ के मालिक और औलियाओं की शान में गाई जाती है । इस उपमहाद्वीप के साबरी ब्रदर्स, निज़ामी बंधु, आबिदा परवीन, नुसरत फ़तह अली और राहत फ़तह अली जैसे क़व्वालों ने पूरी दुनिया में इसका डंका बजवाया ।

बचपन में देखी हुई वह तमाम फ़िल्मे याद आ रही हैं जो अपनी क़व्वाली की वजह से ही ख़ूब कामयाब हुईं । पुतलीबाई फ़िल्म की क़व्वाली ‘कैसे बेशर्म आशिक़’ , मुग़ल-ए-आज़म की ‘तेरी महफ़िल में क़िस्मत’ , बरसात की रात की ‘इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़’ आज भी कंठस्थ हैं । हालाँकि बाद की फ़िल्मों की भी कुछ कथित क़व्वालियाँ बहुत हिट हुईं । अमिताभ बच्चन पर फ़िल्माया गया गाना ‘कजरारे कजरारे’ और शाहरुख़ खान की फ़िल्म मैं हूँ ना का गीत ‘तुमसे मिलके दिल का जो हाल’ भी क़व्वाली कह कर बेचे गये । वैसे सही मायनों में फ़िल्मों को क़व्वालियाँ नुसरत फ़तह अली और ए आर रहमान ने ही दीं । फ़िल्म रॉक़ स्टार की क़व्वाली ‘कुन फाया कुन’ , जोधा-अकबर फ़िल्म में गाई गई ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा’ और वीर ज़ारा की ‘आया तेरे दर पर दीवाना’ सही मायनो में क़व्वाली कही जा सकती हैं । देश के विभाजन पर बनी फ़िल्म गर्म हवा की क़व्वाली ‘मौला सलीम चिश्ती’ तो फ़िल्मी क़व्वालियों की सिर मौर ही है ।

अपने सौ साल के इतिहास में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री ने क़व्वाली को जितना दिया उससे अधिक पाया । आज भी किसी फ़िल्म में किसी क़व्वालीनुमा गीत का होना फ़िल्म की सफलता की गारंटी माना जाता है । फ़िल्मों की देखा देखी अब कोकटेल पार्टियों को सूफ़ी नाइट अथवा क़व्वाली नाइट का नाम देने का चलन बढ़ गया है । अब बेशक आप किसी मजबूरी वश एसी पार्टियों में जाये और कथित क़व्वाल और आयोजक से कुछ अधिक कह भी न सकें मगर उन्हें टोकें ज़रूर । पवित्र नदी में नाले का यह मिश्रण कम से कम झेलें तो नहीं ही ।

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