जाएँगे कहाँ सूझता नहीं

रवि अरोड़ा
चलिये आज आपको एक पुराने गाने की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ । काग़ज़ के फूल फ़िल्म के इस ख़ूबसूरत गीत को कैफ़ी आज़मी ने लिखा और गीता दत्त ने गाया था । गीत के बोल थे- वक़्त ने किया क्या हसीं सितम …जाएंगे कहाँ सूझता नहीं ,चल पड़े मगर रास्ता नहीं, क्या तलाश है कुछ पता नहीं, बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम…वक़्त ने किया…। अब आप पूछ सकते हैं कि आज यह गाना क्यों ? दरअसल सुबह श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के समाचार नेट पर देख रहा था और पाया कि एक दो नहीं वरन दर्जनों ट्रेनें जानी कहीं होती हैं और पहुँच कहीं रही हैं । जी हाँ पूरी इकहत्तर श्रमिक ट्रेनें अनजाने शहरों में पहुँच गईं हैं। यही नहीं दो दिन में पहुँचने वाली ट्रेन को नौ नौ दिन लगे हैं । अब आप स्वयं ही तय करें कि एसे में भला किसे यह गीत याद नहीं आएगा- जाएँगे कहाँ सूझता नहीं ।
बेशक मोदी सरकार की ट्रेनें भी वैसी ही चल रही हैं जैसी ख़ुद सरकार चल रही है अथवा जैसा कैफ़ी साहब ने उपरोक्त गीत में बरसों पहले लिखा था । जैसे सरकार रोज़ अपना रूट बदलती है और जाना था जापान पहुँच गए चीन वाली स्थिति में है , कमोवेश यही हालत उसकी रेलगाड़ियों की भी हो रही है । मज़दूरों को लेकर गुजरात से बिहार पहुँचने वाली रेलगाड़ी उड़ीसा पहुँच रही है और गोरखपुर जाने वाली बनारस । बात रेलगाड़ियों के लेट पहुँचने अथवा ग़लत शहर जाने की भी नहीं है । इन गाड़ियों में बाहर का खाना ले जाने की अनुमति नहीं है और रेल मंत्रालय द्वारा मज़दूरों को समुचित खाना-पानी नहीं दिया जा रहा नतीजा लोगबाग़ भूख प्यास से ट्रेनों में मर रहे हैं । स्वयं रेल मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि इन स्पेशल ट्रेनों में अब तक अस्सी लोगों की मौत हो चुकी है । रेलवे प्लेटफ़ार्म पर एक माँ की मौत के बाद उसके मासूम बच्चे द्वारा बार बार उसका कपड़ा हटा कर देखने के वीडियो ने न जाने कितने कठोर हृदय लोगों को भी रुलाया होगा । हालाँकि सरकार का दावा है कि ये तमाम मौतें भूख-प्यास से नहीं वरन पहले से ही बीमार लोगों की हुई हैं । अपनी खाल बचाने को अब सरकार यह भी कह रही है कि बच्चे, बूढ़े और गर्भवती महिलायें स्पेशल गाड़ियों में सफ़र ही न करें । हालाँकि उसके तमाम दावों में भी काफ़ी झोल हैं । कल रेल मंत्रालय ने दावा किया कि उसने अब तक 3840 स्पेशल ट्रेन चला कर 52 लाख लोगों को उनके घर पहुँचाया है और अब तक 85 लाख पैकेट खाने के और 1 करोड़ 25 लाख बोतलें पानी की मज़दूरों को बाँटी हैं ।
गाड़ी कितनी चलीं और कितने लोग घर पहुँचे इस दावे को स्वीकार कर भी लिया जाए तब भी स्वयं रेल मंत्रालय का आँकड़ा तो चुग़ली करता है कि यात्रियों को औसतन डेड पैकेट भोजन मिला जबकि उसका सफ़र दो से नौ दिन का रहा । डेड पैकेट यानि डेड वक़्त के भोजन में मज़दूरों ने नौ नौ दिन कैसे काटे होंगे , आप स्वयं अंदाज़ा लगा सकते हैं । नतीजा ट्रेनों में भूख-प्यास से मौतें हो रही है और नाराज़ मज़दूर स्टेशनों पर हंगामा और लूटपाट कर रहे हैं । यूट्यूब पर मज़दूरों के एसे वीडियो भरे पड़े हैं जिसने वे बता रहे है कि उन्हें दो दो दिन से खाना नहीं मिला और यदि गाड़ी खेतों के पास थोड़ी देर रुक जाए तो वे लोग कच्ची फ़सल तोड़ कर पेट भर रहे है । टायलेट में पानी न होने और स्टेशनों पर पानी न मिलने की शिकायतों के भी तमाम समाचार हैं ।
कहना न होगा कि कोरोना संकट से निपटने में सरकार की तमाम असफलताओं की फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर श्रमिकों का मुद्दा ही है । अव्वल तो उन्हें घर भेजने का फ़ैसला लेने में ही सरकार को दो महीने लग गए और और जब लाखों मज़दूर भूखे प्यासे सड़कों पर पैदल अपने घर जाने लगे तो सरकार को उनकी सुध आई । पैदल निकले कितने मज़दूर घर पहुँचे और कितने रास्ते में मर गए यह किसी को ख़बर नहीं । थुक्का फजीयत होते देख सरकार ने अब जो बसें और रेलगाड़ियाँ चलाईं वे भी नाकाफ़ी तो हैं ही साथ ही उनको लेकर अव्यवस्थाओं की ख़बरें भी कम दर्दनाक नहीं है । नतीजा करोड़ों लोग अब भी कहीं न कहीं फँसे हुए हैं और अपने घर पहुँचने के लिए सरकार का मुँह ताक रहे हैं । कैफ़ी साहब आपने ठीक लिखा था । बेशक ख़ूब गाल बजाई कर रहे हों मगर इस सरकार और उसकी गाड़ियों को कम से कम यह तो नहीं पता कि जाएँगे कहाँ .. ।

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