छला गया छलिया
छला गया छलिया
रवि अरोड़ा
साल 2011 की गर्मियों की कोई शाम थी। सशक्त लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर अन्ना हजारे का आमरण अनशन चल रहा था और अरविंद केजरीवाल, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, किरन बेदी, आशुतोष, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास और बाबा रामदेव जैसे दिग्गजों की भारी भरकम टीम आंदोलन की कमान संभाले हुए थी। हजारों की भीड़ मंच को घेरे खड़ी थी और लोगों के उत्साह को बनाए रखने के लिए मंच पर अधलेटे अन्ना हजारे थोड़ी थोड़ी देर में उठ खड़े होते और एक बड़ा सा तिरंगा हवा में लहरा देते । उनके ऐसा करते ही पूरा क्षेत्र देश भक्ति के नारों से गूंज उठता और वहां मौजूद तमाम लोगों के मन में क्रांति की लहर सी जागृत हो जाती । इस अनशन में मैं भी अपनी मित्र मंडली के साथ शिरकत कर रहा था और जब वहीं एक कोने में आंदोलन का खर्च चलाने के लिए चंदा एकत्र होते देखा तो जोश में आकर अपनी पूरी जेब ही खाली कर दी थी । जीवन में यह पहला और आखिरी मौका था जब किसी राजनीतिक कार्य को सिद्ध करने के लिए मैने चंदा दिया हो। अब आप कह सकते हैं कि यहां मैं गलत हूं क्योंकि वह आंदोलन तो पूरी तरह गैर राजनीतिक तथा देश में ईमानदारी, शुचिता और पारदर्शिता वाली राजनीति के लिए चलाया गया था । सच कहूं तो आपकी तरह तब मेरा भी कुछ ऐसा ही मानना था मगर बाद में जब इस आंदोलन को शुरू करने वालों के चेहरे से नकाब उतरा तो करोड़ों लोगों की तरह मैंने भी खुद को ठगा सा महसूस किया था ।
देश ने क्या क्या सपना नहीं देखा था उस आंदोलन के समय मगर हुआ क्या ? अन्ना हजारे घर बैठ गए और ऐसे बैठे कि लोग बाग उनका नाम तक भूल गए । किरन बेदी और अन्ना समर्थक वीके सिंह भाजपा में जा मिले तथा राज्यपाल व मंत्री भी बनाए गए । राम देव बाबा से लाला बन गए और अरबों में खेलने लगे । आशुतोष वापिस पत्रकारिता में लौट गए और कुमार विश्वास कवि सम्मेलनों से करोड़ों रुपए पीटने लगे । प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे विद्वान तो जैसे अभी तक तय ही नहीं कर पाए कि वे अब क्या करें। कपिल मिश्रा और शाजिया इल्मी जैसे दूसरी पंक्ति के कार्यकर्ता भी सत्ता की गोद में जा बैठे तो आशीष गौतम जैसे अब कहां हैं, यह किसी को नहीं पता । इन सभी लोगों में एक बात यकसा है कि आंदोलन के छिटकते के बाद सबने एक सुर में अरविंद केजरीवाल को जम कर गालियां दीं और आरोप लगाया कि अपनी राजनीतिक दुकान चलाने के लिए केजरीवाल ने छल से हमारा इस्तेमाल किया ।
राजनीति में नहीं आने की बात करते करते जैसे केजरीवाल ने अपनी पार्टी बनाई और कार कोठी नहीं लेने का दावा करते करते जैसे बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमे और करोड़ों रुपए अपने बंगले पर लगाए तथा जिस जिस को बेईमान कहा, बाद में उसी के गोद में बैठे, उससे कम से कम मैने तो अपनी लानत मलानत की ही कि मैं कैसे इस राजनीतिक धोखे में आ गया ? आज जब दिल्ली की गद्दी पर दस साल राज करके केजरीवाल सत्ताच्युत हो चुके हैं तो यह सवाल हवाओं में है कि अब केजरीवाल का मुस्तकबिल क्या होगा ? लोकपाल विधेयक की आड़ में केजरीवाल ने जिस तरह से अपनी राजनीति चमकाई क्या उसका इस रुसवाई के अतिरिक्त भी कोई और भविष्य हो सकता था ? उन्होंने जिस प्रकार अपनी तमाम घोषणाओं से उलट कर कदम कदम पर अपने समर्थकों को छला और जो भी पुराना साथी था, उसे ही बेइज्जत कर खुद को आगे बढ़ाया क्या भारतीय राजनीति में पुनः ऐसा संभव होगा ? ईमानदारी की बातें करते करते भ्रष्टाचार के आरोप में जेल चले गए और लोकपाल की बात करते करते अपने ही लोकपाल को हटा देने जैसे कृत की क्या केजरीवाल के अतिरिक्त कोई और मिसाल भारतीय राजनीति में दोबारा ढूंढी जा सकेगी ? तमाम पार्टियां जो मुफ्त की रेवड़ियां बांट कर सत्ता हथियाने की जुगत में रहती हैं, उन्हें केजरीवाल से क्या ऐसी सीख मिलेगी कि जनता को मुफ्तखोरी की आदत डालने के भी अपने खतरे हैं और आपके सामने आपसे भी बड़ा कोई बोली दाता खड़ा हो सकता है ? सवाल तो यह भी है कि क्या देश में शुचिता भरी राजनीति की चाह रखने वाली भोली भाली जनता भी केजरीवाल के हश्र से कोई सबक लेगी और भविष्य में हो सकने वाले किसी भी राजनीतिक प्रपंच के प्रति सावधान होगी ? सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या केजरीवाल और उनके जैसे राजनीति करने वाले छलिया राजनीतिज्ञ भी अब यह सबक लेंगे कि तलवार की धार की नीचे रहने वाले तलवार से ही मारे जाते हैं और छलियों को भी छला जा सकता है ।