चढ़दा पंजाब-चढ़दे पंजाबी
रवि अरोड़ा
हालाँकि आज़ादी के समय हुए विभाजन के कारण पंजाब दो भागों में बँट गया मगर पंजाबियों में तो सदियों से पंजाब के दो भाग माने जाते थे । जो हिस्सा आज पाकिस्तान के पास है उसे लैंदा यानि उतरता हुआ पंजाब और जो भाग भारत के हिस्से आया उसे चढ़दा पंजाब यानि चढ़ता हुआ कहा जाता था । बेशक इसका कारण यही रहा होगा कि सूर्य इस हिस्से से उगता नज़र आता है अतः इसे चढ़दा कहा गया और उस हिस्से में सूर्य के डूबने का आभास होता है सो उसे लैंदा कहा गया होगा । मगर इस विभाजन रेखा के अनेक अन्य कारण भी अवश्य रहे होंगे । इस तरफ़ के पंजाबी अधिक जुझारू थे अतः उन्हें डाढा यानि लड़ाका माना जाता था । ये लोग कब किस पर चढ़ दौड़ें कहा नहीं जा सकता था अतः इनके इलाक़े को चढ़दा कहने का औचित्य भी साफ़ दिखता है । बोली का अक्खडपन और लोक संगीत में शोर शराबा भी चढ़दे पंजाब को लैंदे पंजाब से जुदा करता था । चढ़दे पंजाब का आदमी खेती में पूरी तरह रमा था तो लैंदे पंजाब के लोग व्यापारी अधिक थे । चढ़दे पंजाब के अधिक जुझारू होने का कारण यहाँ आबादी के लिहाज़ से जाट सिखों का बोलबाला होना था जबकि लैंदे पंजाब में किराड़ों और खत्रियों की जनसंख्या अधिक थी । हालाँकि विभाजन के बाद आबादियों का भी बँटवारा हो गया मगर मूल संस्कृति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । चढ़दे पंजाब के लोग आज भी वैसे ही हैं- डाढे यानि जुझारू । दिल्ली की सीमाओं को आजकल जिन्होंने हिला रखा है ये किसान उसी चढ़दे पंजाब के लोग हैं ।
बँटवारे के समय दंगा किसने पहले शुरू किया था यह तो किसी को नहीं पता मगर यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान से जब हिंदू-सिखों से लदी रेलगाड़ियाँ मृतकों से भर कर आने लगीं तो चढ़दे पंजाब के लोगों ने ऐसा करारा जवाब दिया कि दंगा थम ही गया । ये लोग कितने जंगज़ू हैं यह अग्रेजों को भी पता था अतः उसने इनकी दो दो रेजिमेंट सिख और जाट के नाम पर बनाईं । जाति से यदि कोई जाट हो अथवा उसके सिर पर पगड़ी हो तो फ़ौज में उसकी भर्ती पक्की ही मानी जाती थी । इन दोनो रेजिमेंट के दम पर ही आज़ाद भारत ने भी चार-चार लड़ाईयों में दुश्मनों के दाँत खट्टे किये । ये डाढे लोग खेतों में उतरे तो इतना अनाज उगा दिया कि पूरे देश को भुखमरी से उभार दिया । इनके लड़ाकू स्वभाव का फ़ायदा उठाकर हालाँकि देश विरोधी ताक़तें ख़ालिस्तान जैसा मूवमेंट खड़ा करने में सफल रहीं मगर ये लोग इतने समझदार भी हैं सरकार के सहयोग से बाद में इन्होंने ख़ुद ही उन विध्वंसियों को मार भगाया ।
दब के वा ते रज के खा यानि जीतोड़ मेहनत करने और छक कर खाने के मूल मंत्र वाला यह पंजाबी अब पहली बार किसी सार्वजनिक आंदोलन का भी नेतृत्व करता दिख रहा है । मगर पता नहीं क्यों सरकार इसे साधारण किसान आंदोलन समझ रही है । हो सकता है कि सरकार अपने इतिहासबोध पर मुग्ध हो कि जब महेंद्र सिंह टिकैट जैसे सर्वमान्य किसान नेता पाँच लाख किसानों के साथ दिल्ली में डेरा डाल कर भी कुछ हासिल नहीं कर सके थे तो दिल्ली के बाहर जमे मात्र ये एक लाख किसान हमसे क्या ले लेंगे ? केंद्र सरकार शायद यहीं चूक कर रही है । ये किसान यूपी-बिहार के साधारण किसान नहीं हैं । पंजाब का किसान पक्का जंगज़ू है और छः महीने के राशन के साथ सड़क पर आया है । याद रखना पड़ेगा कि ये किसान एक ऐसी क़ौम भी है जिसे केवल राजनीतिक़ प्रपंचों से बहलाया नहीं जा सकेगा । साफ़ दिख रहा है कि सरकार बातचीत को जितना अधिक खींचेंगी हालात उतने ही अधिक ख़राब होंगे । अजी सीधी सी तो बात है । या तो उनके हो जाओ या उन्हें अपना बना लो । मगर जो भी करना है कर डालो । कहीं ऐसा न हो कि सरकार की किसी बेवक़ूफ़ी से ये चढ़दे पंजाब वाले दिल्ली के सिंहासन पर ही चढ़ दौड़ें ।