गाय के कुपूत

रवि अरोड़ा
हालांकि इस तरह का कोई सर्वे आज तक नहीं हुआ कि सर्वाधिक पाखंडी किस धर्म के लोग हैं मगर यदि कभी हुआ तो यकीनन हम हिन्दू बाज़ी मार ले जायेंगे। अब हिन्दू धर्म के पाखंडों की बात करते ही अपने ही लोग चढ़ दौड़ते हैं और चुनौती देना शुरू कर देते हैं कि हिम्मत है मुसलमानों के खिलाफ कुछ कह कर दिखाओ.. वगैरह वगैरह । बेशक मुसलमानों समेत तमाम धर्मों में भी अनगिनत बेवकूफियां हैं मगर पाखंड के मामले में तो वे सभी हमसे बहुत पीछे ही हैं। वैसे हिंदू धर्म के पाखंडों की बात हो तो एक हज़ार मुद्दे हैं जिन पर बात हो सकती है मगर आज तो सिर्फ गायों के बाबत बात करने का मन है। दरअसल खबरें बता रही हैं कि लम्पी रोग के चलते अब तक एक लाख गोवंश तड़फ तड़फ कर मर चुका है मगर मुल्क के लगभग सौ करोड़ हिन्दुओं के कानों पर अभी तक जूं नहीं रेंगी। ये वही आबादी है जो गाय को अपनी माता बताती है और उसके मूत्र को अमृत समझ कर पीती है तथा उसके गोबर से अपने घर को लीप कर पवित्र समझती है। जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक जिसके यहां गाय की भूमिका है और उसकी हत्या को घोर पाप बताने की बातें शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। मगर क्या वजह है कि उसी देश में मनुष्यों को होने वाली महामारी कोरोना की आशंका भर से तो लॉकडाउन लग जाता है मगर बहुसंख्यकों की कथित एक लाख माताओं की मौत पर पत्ता तक नहीं खड़कता ? साफ दिखता है कि गाय हमारी माता नहीं है और शास्त्र झूठ कहते हैं । यदि सचमुच माता है तो हर सूरत हम उसके पूत नहीं महा कपूत हैं।
बीसवीं पशु गणना के अनुरूप देश में तीस करोड़ गोवंश है और इस वायरल इंफेक्शन लंपी से उनके समक्ष अब तक का सबसे बड़ा संकट आन पड़ा है। हालांकि इस वायरस का कोई वेरिएंट अभी तक सामने नहीं आया है मगर वायरसों की प्रवृति के अनुरूप इसके आने की आंशका तो है ही । यदि ऐसा हुआ तो लंपी के खिलाफ जो थोड़ी बहुत कारगर वैक्सीन है , वह भी बेअसर हो जायेगी मगर इस आशंका के बावजूद कहीं कोई हलचल नहीं दिख रही। लगता है कि हम इस वायरस के जूनोटिक यानि पशुओं से मनुष्यों में पहुंचने का ही इंतजार कर रहे हैं। क्या विडंबना है कि जो देश गाय को माता कहता है उसी देश में उसकी सर्वाधिक बेकद्री होती है। न तो अधिकांश लोग उसका दूध पीते हैं और अधिक मुनाफा न होने के चलते न ही खुशी से कोई इसे पालना चाहता है। गोभक्तों की सरकार होने के चलते अनेक राज्यों में गोवंश का कटान बंद है और उसी के चलते पशु पालक अपने अनुपयोगी गोवंश को अब छुट्टा छोड़ देते हैं। नतीजा आवारा गोवंश खेतों में घुस कर फसलों को नुकसान पंहुचा रहे हैं। आवारा गोवंश के सड़कों पर डेरा डाल लेने से राज्य मार्गों पर भी यातायात दूभर होता है सो अलग। कहने का कदापि यह अर्थ नहीं कि गो वंश का कटान शुरू हो मगर उन्हें हम चैन से जीने का हक भी न दें,यह कौन सा धर्म है ?
मूक गायों की अकाल मौत पर केंद्र और राज्य सरकारों की उदासीनता की वजह कहीं यह तो नहीं कि गोपालक गरीब तबकों से आते हैं और बड़े बड़े शहरों में नहीं वरन सुदूर गांवों में बसते हैं ? धार्मिक रीति रिवाजों के अतिरिक्त गाय की कोई ख़ास अन्य उपयोगिता नहीं बची है और लोगबाग गाय का नहीं वरन भैंस जैसे अन्य जानवरों का दूध अधिक पसंद करते हैं ? खेती और ढुलाई में बैलों का इस्तेमाल घटते के चलते यूं भी आधा गोवंश यानि बैल पशु पालकों के लिए अब आर्थिक रूप से बोझ के अतिरिक्त कुछ और नहीं रहे और उनके मरने जीने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता ? यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हम खुल कर स्वीकार करते और क्यों गो वंश की बेकद्री और उससे जुड़े पाखंड को समानांतर खींचे जा रहे हैं ? क्यों आडंबरों के अतिरिक्त हम गाय को पशुओं वाले उसके अधिकार भी नहीं देते ? मान क्यों नहीं लेते कि गाय हमारी माता वाता बिलकुल नहीं है ? और यदि है तो हम स्वीकार क्यों नहीं लेते कि हम अव्वल दर्जे के कुपूत हैं।

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