गांधी की विदाई
रवि अरोड़ा
क़रीब तीन महीने पहले वरिष्ठ पत्रकार और नवजीवन अख़बार के संपादक बड़े भाई दिवाकर जी का फ़ोन आया और उन्होंने ज़िम्मेदारी दी कि मैं गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘ गांधी मार्ग ‘ के प्रसार में सहयोग करूँ और ग़ाज़ियाबाद के साहित्य, इतिहास, राजनीति और सामाजिक क्षेत्र के सक्रिय लोगों तक यह पुस्तक पहुँचाऊ । इस पुस्तक में विश्व विख्यात राजनीतिज्ञ जेम्स डब्ल्यू डगलस व वरिष्ठ पत्रकार कुमार प्रशांत ने विस्तार से उन ताक़तों और उनके राजनीतिक सामाजिक दर्शन की चर्चा की है जिन्होंने गांधी की हत्या की थी । आदेश का पालन करते हुए मैंने अपने सामर्थ अनुसार किताबें मँगवाई और मित्रों व परिचितों में बाँट दीं। जिन्हें पुस्तक दी उनसे मैंने यह आग्रह भी किया कि पुस्तक पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें । महीनों गुज़र चुके हैं मगर अभी तक एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई । मैं भलीभाँति जानता हूँ कि अधिकांश लोगों ने यह किताब पढ़ी ही नहीं होगी । कुछ लोगों ने अवश्य उलट पलट कर देखी होगी मगर उसके दो चार पन्नों से आगे वे भी नहीं बढ़े होंगे । शायद वे सभी लोग सोचते होंगे कि आज के दौर में भला गांधी का क्या काम और एसे में क्यों गांधी और उनके विचार पर अपना समय जाया किया जाये । शायद ये तमाम लोग मान भी रहे हों कि गांधी ही नहीं उनके विचार भी अब विदा हो चुके हैं । आज जब दुनिया गांधी जी का 150वाँ जन्मदिन मना रही है उस समय इस तरह की निराशाजनक बातें करने पर शायद आप नाराज़ हो जायें । यह भी हो सकता है कि आप आँखें तरेर कर मुझसे कहें कि आज जब मोहल्लों, कालोनियों और शहरों के ही नहीं तमाम सरकारी योजनाओं और भवनों के नामो से लेकर करेंसी तक में गांधी पसरे हुए हैं तो मुझे गांधी विदा होते कैसे नज़र आ रहे हैं ? मगर आप ही बताइये आज जब सत्ता प्रतिष्ठानो और तमाम राजनीतिक सामाजिक संघटनों द्वारा ज़बरन गांधी को ज़ोर शोर से विदा किया जा रहा हो तब हमें इसे स्वीकार कर लेने में हर्ज ही क्या है ?
नज़रें उठा कर तो देखिये । आपको चहुंओर नाथूराम गोडसे का प्रतिनिधित्व तो दिखाई देगा मगर गांधी के लोग दूर दूर तक नज़र नहीं आएँगे । आप कह सकते हैं कि एसा नहीं है और नीचे से ऊपर तक सभी गांधी के नामलेवा हैं । यक़ीनन आप ठीक कह रहे हैं । मगर इससे कैसे मुँह चुरायें कि आज गांधी एक राजनीतिक मजबूरी हैं और उनकी बात सबको करनी ही पड़ती हैं । उनको भी जो गांधी के हत्यारे हैं । गांधी जी तमाम धर्मों, पंथों, क्षेत्र, भाषा और जातियों के लोगों के बीच समानता और बंधुत्व चाहते थे मगर आज एसा करता कोई दिखता है क्या ? गांधी मानवीय गरिमा से ओतप्रोत सेक़ुलर भारत चाहते थे मगर आज सेक़ुलर शब्द ही गाली नहीं हो गया क्या ? गांधी लोगों को गो रक्षक़ नहीं गो सेवक बनाना चाहते थे मगर बताइए तो सही कि गो सेवक हैं कहाँ ? यहाँ तो जिसे देखो वही गो रक्षक बना घूम रहा है । गांधी मॉब लिंचिंग को समाज ही नहीं मानवीय मूल्यों की नज़र से भी जघन्य अपराध मानते थे मगर आज मॉब लिंचिंग राजनीतिक हथियार है जो सभी के हाथों में दिखाई पड़ रहा है । गांधी का स्वराज जन भागीदारी की बात करता था मगर आज आम जन की भूमिका मतदान करने के अतिरिक्त शून्य ही तो है ।
मैं मानता हूँ कि गांधी की सभी बातों से सहमत होना आसान नहीं । ब्रह्मचर्य जैसी उनकी सीख हर किसी के समझ भी नहीं आतीं । बेशक उनके पास सभी समस्याओं का समाधान भी नहीं था । तब ही गांधी कहते थे कि वे सत्य के साथ प्रयोग कर रहे हैं । शायद यही वजह भी थी कि गांधी को समझने में सिर खपाने से आसान उन्हें रास्ते से हटाना कुछ लोगों को लगा । गांधी फिर रास्ते से हटाए जा रहे हैं । उन्हें महामानव बना कर और केवल मूर्तियों और योजनाओं के नामों से जोड़कर । मगर साथ ही साथ गांधी से जुड़ी अधकचरी सूचनाओं को हवा देकर गांधी की विदाई का मंत्रोजाप भी किया जा रहा है ।