खेल के नियम
रवि अरोड़ा
बचपन में टेलिविज़न देखने हम बच्चे किसी अनजान पड़ौसी के घर भी घुस जाते थे । कभी कभी एसा भी होता था कि इतवार वाली फ़िल्म आधी निकल गई और किसी ने हमें अपने घर में आने ही नहीं दिया । कभी कभार आने वाली जीने मरने की ख़बर एक दूर के पड़ौसी के फ़ोन से मिलती थी । उसकी मर्ज़ी हो तो वह बुला कर बात भी करा देता था वरना मिलने पर समाचार दे देता था । साथ का एक लड़का कुछ ज़्यादा ही रौब गाँठता था क्योंकि उसके पापा के पास स्कूटर था । बड़ी कोठी वाले लड़के हमसे बात करने में अपनी तौहीन समझते थे । कदम कदम पर एसी चीज़ें, लोग और हालात थे जो हीनता का अहसास मेरी पूरी पीढ़ी को कराते थे । अजब स्थिति थी कि जीवन के टार्गेट तभी उन लोगों ने तय कर दिये जिनके प्रति ईर्ष्या से अधिक नफ़रत का भाव था । जो नापसंद थे उन्ही के जैसा बनने के दबाव में पहले जवान और अब बूढ़ी हो गई मेरी पूरी पीढ़ी । देखा देखी हमारे बच्चे भी वैसे ही बन गए। यह नई पीढ़ी भी इसी ग़म में मरी जा रही है कि भला उसकी क़मीज़ मेरी क़मीज़ से सफ़ेद कैसे ? यह कहानी केवल मेरी आपकी नहीं वरन उन करोड़ों मध्यवर्गीय लोगों की है जिसे अब हिक़ारत से देखा जा रहा है । कोरोना संकट के काल में मासिक किश्तों के जाल में फँसी यह बड़ी आबादी गाली खा रही और सलाहें सुन रही है कि जितनी चादर हो उतने पाँव पसारने चाहिये या दूसरे का मुँह टमाटर सा लाल हो तो अपना थप्पड़ों से लाल नहीं करना चाहिये । वग़ैरह वग़ैरह । अपने जैसे इस बीच के आदमियों को कोस मैं भी रहा हूँ मगर फिर भी चाहता हूँ कि गरियाने से पहले उन्हें समझा तो जाये ।
मुझे और आपको मिला कर बने इस मध्यवर्ग को ग़ौर से देखता हूँ तो पाता हूँ कि उसका मन मस्तिष्क अब समाज के डस्टबिन के अधिक कुछ नहीं रहा । चहुँओर स्वयं को साबित करने का ज़बरदस्त दबाव उस पर है । जो जिस पायदान पर खड़ा है उसे उससे ऊपर वाले पायदान पर पहुँचना है । जो नहीं है वही दिखाने का ज़बरदस्त प्रेशर है और इसी कारण सबको अंतत मुखौटों की शरण में जाना पड़ता है । जीवन नहीं हर कोई इमेज जी रहा है । बेशक ख़ुद तबाह हो जायें मगर इमेज का बाल बाँका न हो । जिसे देखो वही आईडेंटिटी पोलिटिक्स में रमा है । एंटी इंटलक्चुइज़्म के इस दौर में देश काल से इतर सोचना भी पाप हो गया है । अपनी सच्चाई छुपाने की इस होड़ को आसान क़र्ज़ ने और आसान कर दिया है और अब हर कोई चार्वाक बना घूम रहा है । इसी चार्वाकपने के लिए अब गालियाँ भी खानी पड़ रही हैं ।
एनिमल चैनल पर कभी कभार भेड़ बकरियों के रेवड़ यानि झुंड को ग़ौर से देखता हूँ । जो रेवड़ से अलग हुआ उसकी मौत निश्चित है । मेरा पूरा मध्यवर्ग रेवड़ जैसे एक अनजानी दिशा में दौड़ रहा है । कभी तमाम बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, साहित्यकार, इतिहासकार और राजनेता पैदा करना केवल इसकी ज़िम्मेदारी थी मगर अब सब कुछ रेडीमेड है और कहीं से भी अवतरित हो सकता है । था कभी वह दौर जब तमाम समाज सुधारक़ और स्वतंत्रता सेनानी इसी वर्ग से निकले मगर इन क्षेत्रों में भी अब इसका एकाधिकार नहीं । तमाम मुद्दे , सभी नीतियाँ तथा दिशाएँ अर्थ और बाज़ार तय करते हैं । अब एसे में बेचारा यह मध्यवर्ग भी क्या करे ? उसी उच्च वर्ग में शामिल होने का ही तो झूठा-सच्चा प्रयास अथवा उसकी नक़ल कर रहा है जो तमाम नीतियों का निर्धारक है । कम्प्यूटर के युग में केवल उससे ही घुड़सवारी सीखने की उम्मीद क्यों पाली जाये ? ठीक है कि इस बार वह ईएमआई के जाल में फँस गया मगर इस खेल का जब यह नियम ही है तो इसमें अकेले उसका भी क्या क़सूर ?