क्या ऊपर वाला ऊँचा सुनता है

रवि अरोड़ा

कक्षा कौन सी थी यह तो याद नहीं मगर पढ़ाया गया कबीर का यह दोहा आज तक रटा हुआ है-कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय , ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ! भले वक़्त में गुज़र गए कबीर । आज के दौर में कोई एसा कहता तो ना जाने कितने फ़तवे जारी हो जाते । कोई भी एरा ग़ैरा मुक़दमा दर्ज कर देता । कई कठमुल्ले तो इसे बक़ायदा ईशनिंदा की संज्ञा ही दे डालते । इस अदना से गायक सोनू निगम का जीना हराम किए हुए हैं तो कबीर दास को बक्श देते क्या ? वैसे उन दिनो लाउडस्पीकर नहीं थे , होते तो क्या तब भी कबीर यह दोहा इसी तरह लिखते अथवा अपनी बात कुछ और तरीक़े से कहते ? कबीर के समय में केवल मुस्लिम ही मीनार पर चढ़ कर ऊँची आवाज़ में चिल्लाते होंगे , तब ही कबीर ने अपने इस दोहे में केवल उन्हें ही लपेटा । उन दिनो माता के जागरण भी गली-गली नहीं होते होंगे । कभी समझ में ना आने वाले श्लोक और ग्रंथों का पाठ मंदिरों के लाउड स्पीकरों से दिन भर नहीं उगले जाते होंगे । जिन इलाक़ों में मुस्लिम आबादी बेहद कम हैं वहाँ भी लाउड स्पीकरों से निकली अजाने दिन में पाँच बार यह दावा नहीं करती होंगी कि अल्लाह के सिवा कोई और इबादत के योग्य नहीं है । गुरुद्वारे तो तब थे ही नहीं जो इस प्रतियोगिता को और समृद्ध करते । पन्द्रहवीं सदी के उस दौर ईसाई भी भारत कहाँ आए थे ? सचमुच सही वक़्त में गुज़र गए कबीर । अब तो जिसे देखो वही बाँग दे रहा है । नीली छतरी वाले को बहरा ही समझ रहे हैं सब लोग । बहरा ना सही तब भी यह तो मान ही रहे हैं कि ऊपर वाला ऊँचा सुनता है ।

आठवें दशक का शुरुआती दौर था। दिल्ली और उसके आसपास जागरण मंडलियों की धूम थी । पहला, दूसरा, पाँचवा और सातवाँ विशाल भगवती जागरण के पोस्टर जगह जगह लगे दिखाई देते थे । मेरे अपने शहर में लगभग हर शनिवार को कहीं ना कहीं जागरण होता था। जागरण मतलब बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों के शोर में रात भर गीत-संगीत। उन दिनो छोटे अंतराल की माता की चौकियों का चलन नहीं आया था। जिसे ज़रा सा भी गाना आता हो अथवा कोई वाद्य यंत्र बजा लेता हो , वह किसी ना किसी जागरण मंडली का हिस्सा होता था । शहर में दर्जनों मंडलियाँ थीं । सभी हिंदी फ़िल्मों के गाने की पैरोडी बना कर माता की भेंटे गाते थे । पक्के रागों का गायन करने वाली मंडलियाँ चलन से बाहर हो गई थीं । इसी दौर में मेरी एमए की परीक्षाएँ चल रही थीं । अगले दिन इग्ज़ाम था और पड़ोस में हो रहे एक जगराते में एक गायक लाउडस्पीकर पर उषा उत्थप के गीत रम्बा हो हो हो की पैरोडी गा रहा था । बस रम्बा की जगह माता शब्द फ़िट किया हुआ था , बाक़ी गाना हूबहू ही था । अगले दिन की परीक्षा शर्मनाक हुई । एग्ज़ाम क्या ख़ाक देता , दिमाग़ में तो रम्बा हो हो चल रहा था । ख़ैर ।

सोनू निगम द्वारा धार्मिक गतिविधियों में लाउड स्पीकर के प्रयोग का विरोध और उस पर हुए कोहराम ने मुझे ख़ुद से पूछने को उकसा दिया है कि आख़िर किस धर्म में शोर शराबे की हिमायत है ? जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदू धर्म में ईश्वर की कीर्ति के गायन यानि कीर्तन का ज़िक्र तो है मगर शोर शराबे का तो क़तई नहीं है ।.इस्लाम में भी अज़ान है , लाउडस्पीकर नहीं । ईसाईयत में तो मौन प्रार्थना की ही बात कही गई है । सिख धर्म में भी शबद के रागों में गायन की बात है । लाउडस्पीकर अथवा अपनी आवाज़ दूर से दूर पहुँचाने की बात तो कहीं भी नहीं है । फ़िर यह लाउडस्पीकर आया कहाँ से और क्यों आया ? क्या हम धर्म के नाम पर कोई कंपीटिशन तो नहीं कर रहे ? तेरी आवाज़ मेरी आवाज़ से ऊँची कैसे ? तू डाल डाल मैं पात पात । तेरी क़मीज़ मेरी क़मीज़ से सफ़ेद कैसे ? क्या यही धर्म है ? अब यही है तो भैया हमका तो माफ़ी ही दई दो ।

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