किताबें
रवि अरोड़ा
धर्म कर्म में अपना हाथ ज़रा हल्का है मगर पत्नी धर्मभीरू है । सो घूमने फिरने के शौक़ में धार्मिक स्थल भी ख़ूब हो आता हूँ । मुल्क के अनेक तीर्थ स्थल , धार्मिक नगर , गुरुद्वारे, चर्च और मज़ारों पर माथा भी टेक चुका हूँ । अनेक साधू-संतों के भी दर्शन करने का अवसर मिल चुका है । सच कहूँ तो अच्छा लगता है एसी जगहों पर जाना । मगर एक बात सभी जगह कचोटती है । तमाम एसे स्थलों पर परम्परायें तो ख़ूब हैं मगर उनसे सम्बंधित ज्ञान नहीं है । हर कोई यह तो कहता है कि एसा करो अथवा वैसा करो मगर कोई यह नहीं बताता कि एसा क्यों करें ? कोई नहीं समझाता कि कौन से विधि-विधान का क्या अर्थ है अथवा किस परम्परा का मंतव्य क्या है ? ख़ास बात यह है कि एसी जगहों पर पूजा सामग्री , प्रसाद और कर्मकांड की तमाम चीज़ें तो हर दुकान पर मिल जायेंगी मगर वहाँ का महत्व बताने को किताबें नहीं मिलेंगी । एसी जगहों पर पढ़े-लिखे और अनपढ़ दोनो एक समान ही दिखते हैं । पूजा पद्धति को जो बताया जाय बस वह करते जाओ । चुपचाप ।
हाल ही में हिमाचल प्रदेश स्थित पाँवटा साहिब गुरुद्वारे जाने का अवसर मिला । घर से रवाना होते समय पिताजी ने सिख धर्म से सम्बंधित कुछ किताबों के नाम लिख कर दिए और वहाँ से उन्हें लाने को कहा था । माथा टेकने के बाद किताबें ढूँढने निकला । जान कर बड़ी हैरानी हुई कि गुरुद्वारा परिसर और उसके आसपास कोई किताबों की दुकान ही नहीं है । हालाँकि यह स्थान वह है जहाँ दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा गुज़ारा । आज वहाँ गुरु से सम्बंधित सब कुछ बड़ी हिफ़ाज़त से सहेज कर रखा गया है मगर उनके बारे में बताने अथवा उनके जीवन से प्रेरणा लेने को सिर्फ़ किताबें ही नहीं हैं । ठीक एसा ही अमृतसर के गोल्डन टेंपल में भी मेरे साथ हो चुका है । सिख धर्म के सबसे बड़े केंद्र में भी सब किताबें नहीं हैं । सिर्फ़ गुरुद्वारों की ही बात क्यों करूँ ? बद्रीनाथ , केदारनाथ , गंगोत्री , काशी विश्वनाथ , महाकाल , वैष्णोदेवी , शिर्डी , दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों , अजमेर शरीफ़ और गोवा की बोम जीसस चर्च में भी मैंने यही सब देखा है । यही नहीं काशी , उज्जैन , प्रयाग , कुरुक्षेत्र जैसे धार्मिक शहरों में भी भारतीय संस्कृति के बाबत पुस्तकें ढूँढे से नहीं मिलतीं । समझ से परे है कि सभी धर्मों को ज्ञान से परहेज़ क्यों है ? धर्म के नाम पर अपनी रोज़ी रोटी चलाने वाले अपने एसे अनुयायी ही क्यों चाहते हैं जो कुछ जानें नहीं अथवा सवाल ना करें ? क्या धर्म सिर्फ़ अनपढ़ों के मतलब की शय है ?
मेरे इर्द गिर्द दर्जनों एसे युवा हैं जो हाथ में कलावा बाँधे घूमते हैं । वीरवार को दाढ़ी नहीं बनाते । दिन-त्यौहार व्रत रखते हैं । मंगलवार को मंदिर जाकर प्रसाद चढ़ाते हैं अथवा सोमवार को शिवलिंग पर जल चढ़ाने जाते हैं । वह यह सब क्यों करते हैं , यह उन्हें भी नहीं पता । पूछने पर वे कहेंगे कि बड़ों ने एसा करने को कहा है । युवा पीढ़ी परम्पराओं व धर्म से जुड़े , यह अच्छी बात है मगर लकीर की फ़क़ीर ही बने इसमें किसका भला है ? आप माने या ना माने मगर मुझे लगता है कि अज्ञान से पनपा धर्म अथवा प्रश्नो पर अंकुश लगाने वाले धर्म से केवल उनका ही हित होगा जिनके हिस्से इसका लाभ आता है । अब यह लाभ आर्थिक हो अथवा राजनीतिक दोनो एक ही बात हैं । यक़ीन नहीं हो तो देश में धर्मों के साम्राज्य और मुल्क के सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य को ही ग़ौर से देख लीजिए ।