कहीं से भी पुकार सकता है रावण
रवि अरोड़ा
लीजिए रावण का वध हो गया । ख़ुशी का ही तो अवसर है कि रावण मारा गया । आज के उस दौर में जब रावण मारे नहीं जाते वरन ऊँचे और ऊँचे होते जाते हैं वहाँ टेलीविजन के धारावाहिक में ही सही रावण मरा तो सही । आज जब रामों के वनवास का अनिश्चितक़ालीन दौर है तब छोटे पर्दे पर ही सही राम का विजयी होना हर्षोल्लास तो पैदा करता ही है । बेशक विभीषण का राज्याभिषेक हो गया मगर उसके मान-सम्मान की यह पहली और आख़िरी घटना होगी । विभीषण सदैव दुत्कारे ही जाते हैं और संभवतः युग युगांतर तक इसी गति को प्राप्त होंगे । हालाँकि रावण का भी नाम फिर किसी ने अपने नवजात शिशु को नहीं दिया मगर श्रीराम का प्रिय होने के बावजूद यह सम्मान विभीषण ने भी तो कभी नहीं पाया । कितना सुखद अहसास है कि युगों बाद भी हम विभीषणों को पहचानते हैं और उनके साथ वही करते हैं जो रावण ने किया । बेशक राम हमारे आदर्श हैं और सदैव रहेंगे मगर विभीषणों के मामले में तो हमारा समाज सदैव रावण के ही साथ रहा है । लेकिन एसा क्यों है कि हम राम और रावण की पहचान में अक्सर भ्रमित हो जाते हैं ?
दुनिया दुरूह हो चली है । साथ ही दुरूह हो चली है राम और रावण की पहचान । कलयुग के राम और रावण अब इतने सरल कहाँ कि उनकी मोहक मुस्कान अथवा अट्टहास से हम उनकी शिनाख्त कर लें । बेशक राम अब भी अट्टहास नहीं लगाते मगर रावणों की मुस्कान भी तो अब मोहक हो चली हैं । बेशक रावण तब भी मायावी था मगर अब राम भी तो चुपके से व्यक्तियों में नहीं वृत्तियों में जा बसे हैं । और उन्हें व्यक्तियों में ढूँढने वाले सदैव निराश ही होते हैं । रावण का माया जाल अब भी अचूक है । अक्सर राम बन कर वह हमें भ्रमित करता है और हम दूसरों में रावण और स्वयं में राम का वास समझ बैठते हैं । दूसरी जातियों और धर्मों में हमें सदैव रावण ही अपनी जँघा पर हाथ मारते दिखते हैं । शायद वे रावण ही होते हैं जो राम की परिस्थितियों का वास्ता देकर हमें स्वर्ण हिरणों के आखेट को उकसाते हैं । वे क़तई प्रभु राम नहीं हो सकते जो दूसरों की लंका जलाने को हमें प्रेरित करते हैं । राम तो शायद वही होंगे जो कहते हैं कि मेरी परिस्थितियाँ , देशकाल व सामाजिक मूल्य अलग थे , तुम्हारे अलग हैं । यक़ीनन राम वही हैं जो कहते हैं कि नैतिक मूल्य कमोवेश शाश्वत हैं और उनके पीछे पीछे चलो ।
राम वही हैं , जो हमारे भीतर आकर चुपके से कहते हैं कि भूतकाल के मंथन में कुछ और नहीं केवल विष ही उत्पन्न होगा । अब इस विष का ही मंथन करके चहुंओर दुर्गन्ध मत करो । नफ़रत को बिलोवोगे तो मक्खन नहीं नफ़रत ही मिलेगी । राम वही हैं जो कहते हैं कि सुर असुर जातियों को नहीं कर्म को कहते हैं । राम वही हैं जो कहते हैं कि अब संध्याकाल में युद्धविराम नहीं होते वरन रावण और उनका कुनबा तब ही अधिक सक्रिय होता है । रावण कहीं भी जा सकते हैं । वे कहीं से भी आपको पुकार सकते हैं , मंचों से , ओहदों से, अख़बारों से , टेलिविज़न से और ऊँची कुर्सियों से भी । राम बताते हैं कि अब आसान नहीं है मेरी और रावण की पहचान ।
ख़ुशी का अवसर है कि हमने एक बार फिर रावण को मरते देखा । अब हमें कुछ और करने की ज़रूरत नहीं । राम हर साल आते तो हैं रावण को मारने । आगे भी आते ही रहेंगे । हर बार उन्हें पहले से बड़ा रावण मिलेगा वध के लिए । आइये हिसाब लगायें कि पिछले साल के मुक़ाबले इस साल और कितना बड़ा रावण हमें राम के हवाले करना है । वृत्तियों में हम नहीं ढूँढ पाएँगे राम और रावण को । आइये पुतलों और मूर्तियों से ही ख़ुद को बहलायें ।