करतारपुर से लौटकर ( अंतिम भाग )
रवि अरोड़ा
हर बात को कुरेद कुरेद कर जानने की जिज्ञासा और अखबार नवीसी के अनुभव का परिणाम यह हुआ कि दोपहर होते तक गुरुद्वारे का एक सुरक्षा कर्मी मुझे इंटरव्यू दे रहा था । नारोवाल निवासी इस सुरक्षा कर्मी आसिफ़ से मैं मूलत: यही जानना चाहता था इतना बड़ा गुरुद्वारा, इतनी बड़ी लागत, सीमा के दोनो ओर हुई भरपूर राजनीति और जम कर प्रचार प्रसार के बावजूद यहां भारतीयों की आमद इतनी कम क्यों है ? इस पर आसिफ़ का कहना था कि पाकिस्तान सरकार तो चाहती है मगर भारत सरकार ही अपने लोगों को यहां भेजने में रोड़े अटकाती है। बकौल उसके पाकिस्तान सरकार ने भारत से कई बार कहा है कि अपने लोगों को वह केवल आधार कार्ड के मार्फत ही भेज दे मगर भारत की ओर से पासपोर्ट के बिना यहां आने का आवेदन ही नहीं किया जा सकता । इसके अतिरिक्त भारत में पुलिस और अन्य विभागों की जांचों के चलते भी अनेक आवेदक चाह कर भी यहां नही आ पाते । आसिफ के अनुसार पाकिस्तान सिख गुरूद्वारा प्रबंध कमेटी ने भी भारत से अनुरोध किया है कि सभी ऐच्छिक श्रद्धालुओं को वह वहां भेजे और इसके लिए पाकिस्तान सरकार बीस डॉलर के अपने प्रवेश शुल्क को भी मुआफ करने को तैयार है।
आसिफ़ ने ही बताया कि पाकिस्तान सरकार की ओर से यहां लगभग एक हजार लोग विभिन्न कार्यों के लिए रोजाना तैनात रहते हैं। लगभग साढ़े सात सौ तो स्थानीय सीमा सुरक्षा बल के ही जवान हैं और बाकी सभी सेवादार हैं। भारत की ओर भी सैंकड़ों लोगों की तैनाती मैं देख कर आया था । यानि दोनो सरकारों की ओर से लगभग डेढ़ हजार सरकारी स्टाफ का खर्च और भारतीय श्रद्धालुओं की संख्या मात्र उंगलियों पर गिनने योग्य ? आसिफ और अन्य लोगों ने बताया कि यहां केवल सौ डेढ़ सौ भारतीय ही रोज आते हैं। हां शनिवार और इतवार को जरूर यह संख्या दोगुनी हो जाती है। बेशक बैसाखी और गुरुपर्व आदि पर दो ढाई हजार भारतीय यहां पहुंचते हैं मगर उनमें अधिकांश वही होते हैं जो बकायदा वीजा लेकर वाघा बॉर्डर से पाकिस्तान आए हुए होते हैं । उन दिनों में भी करतारपुर कॉरीडोर से आने वालों की संख्या चार सौ पार नहीं करती। यानि जिस उद्देश्य से यह कॉरीडोर बनाया गया वह कहीं पीछे छूट गया ।
सिख धर्म के प्रथम गुरु बाबा नानक के बारे में अधिक न जानने वालों को बता दूं कि बाबा की मृत्यु के पश्चात उनके मुरीद मुसलमानों ने उनके फूल जहां दफनाए थे उसी जगह करतारपुर का गुरुद्वारा दरबार साहेब है और जहां हिंदुओं ने उनका अंतिम संस्कार किया वह जगह भारत के गुरुदासपुर जिले में है और वहां पर डेरा बाबा नानक गुरुद्वारा है। दोनो गुरुद्वारों में मात्र सात किलो मीटर की दूरी है। बंटवारे के समय अंग्रेज अफसर रेडक्लिफ की बेवकूफी से एक ही महत्व के दो स्थान अलग अलग देशों में चले गए । उधर, पाकिस्तान सरकार ने तो अपने गुरूद्वारे की काया पलट कर दी है मगर भारत का गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक सदियों से अभी भी इसके इंतजार में है। भारत के सिख करतार पुर साहेब बिना वीजा के जा सकते हैं मगर पाकिस्तान के सिक्खों को डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे के दर्शन को अभी भी वीजा लेना पड़ता है। हालांकि अपने अपने देश से श्रद्धालु दूसरे देश के गुरुद्वारे को दूरबीन से देखते रहते हैं मगर उनकी मांग है कि इस कॉरीडोर से दोनो गुरुद्वारों को जोड़ा जाए ताकि बाबा नानक की स्मृतियां वे और अच्छे से संजो सकें। आगामी आठ नवम्बर को बाबा नानक का जन्म दिवस है । क्या ही अच्छा हो कि इस अवसर पर दोनो देश की सरकारें करोड़ों नानक नाम लेवा संगत को यह तोहफा दे सकें।
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