कमीन-कमीने

रवि अरोड़ा

एक मुस्लिम मित्र की बेटी के निकाह में जाना हुआ । रस्मों को अता करने के लिए सजाये गए मंच पर दूल्हा-दुल्हन पक्ष के सभी ज़िम्मेदार लोग जुट थे । दूल्हे के पिता सबके बीच में घोषणा कर रहे थे कि दुल्हन के गाँव की मस्जिद के लिए इतने और मदरसे के लिए इतने पैसे वे दे रहे हैं । उन्होंने दुल्हन के गाँव के ‘ कमीनों ‘ के लिए भी एक छोटी सी राशि की घोषणा की । ‘ कमीनों ‘ के लिए दी जा रही राशि का कम होना दुल्हन के एक बुज़ुर्ग रिश्तेदार को नागवार गुज़रा और इस मुद्दे पर उन्होंने दुल्हे के पिता से अच्छी ख़ासी बहस भी कर डाली । बहस में बार बार कमीन और कमीने शब्द का प्रयोग हो रहा था । मैं हैरान था कि ये लोग गाली किसे दे रहे हैं और ऊपर से उन्हें पैसे भी क्यों दे रहे हैं ? यह तो मैं जानता था कि मुस्लिमों में निकाह के लिए दुल्हन के घर आया दूल्हा पक्ष गाँव के उत्थान के लिए भी कुछ रक़म देता है मगर ये कमीने कौन हैं जो यूँ सरे आम बेज्जत हो रहे हैं ? रस्म अदायगी के काफ़ी समय बाद मेरी समझ आया कि ये कमीन और कोई नहीं वरन गाँव का कामगार वर्ग ही है । यानि नाई, धोबी, मोची, कुम्हार, तेली और मल्लाह आदि हैं । मगर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले कमीने कैसे हो गये ? और ये ख़ाली बैठ कर इन श्रमिकों का शोषण करने वाला निकम्मा भू-स्वामी वर्ग कैसे महान हो गया और पूरी व्यवस्था पर क़ब्ज़ा किये बैठा है ? बात केवल मुस्लिमों की ही क्यों हो , हिंदू और अन्य धर्मों की हालत क्या इससे बेहतर है ? वहाँ तो और भी बुरा हाल है । हमारे तो सभी देवता और अवतारी पुरुष भी इन निकम्मे भूस्वामी वर्ग के यहाँ ही जन्म लेते हैं और कामगार को भगवान भी नहीं पूछता ।

मैं भली भाँति जानता हूँ कि कमीन और कमीने दोनो अलग अलग शब्द हैं । कमीन संस्कृत के कर्मी से वाया पाली कम्मी होते हुए हिंदी में कमीन होकर आया है और कमीने शब्द इस्लाम के साथ हमारे मुल्क में पहुँचा । हालाँकि कमेरे वर्ग को कमीन पहले पहल कहना कब शुरू हुआ यह जानना तो मुश्किल है मगर यह तय है कि श्रम और श्रमिक के प्रति घृणा से ही इसका जन्म हुआ होगा । श्रम विभाजन ने जब वर्ग विभाजन का रूप लिया तो कमेरे निम्नतर हो गये और धन, भूमि और सत्ता के दम पर निकम्मे सम्मनीय बन बैठे । रही सही कसर इस्लाम के भारतीय उपमहाद्वीप पर कदम ने पूरी कर दी और फ़ारसी के उसके शब्द कमीना को हमने अपने कम्मी, कमेरे या यूँ कहिये कमीन से जोड़ दिया । फ़ारसी में कमीना धूर्त, बदमाश और नीच को कहते हैं । शायद घृणा से लबरेज़ हमारे पूर्वजों ने संस्कृत के कानीन यानि अविवाहित स्त्री से जन्मी संतान को ही कमीन कह कर बाद में उसे अपने ग़ुलाम मेहनतकश वर्ग से जोड़ दिया हो । बहरहाल जो भी हो मगर यह तो ज़मीनी हक़ीक़त है हमारे सारे पुराण, हमारा पूरा इतिहास और हमारी सारी कहानियाँ राजाओं और शासकवर्ग की ही हैं । श्रमिक वर्ग का कहीं रत्ती भर भी ज़िक्र नहीं है । ले देकर वाल्मीकि और रैदास जैसे चंद महापुरुष ही इस जज़मानी व्यवस्था में अपना कोई मुक़ाम हासिल कर सके ।

भारत सोने की चिड़िया से जहालत के गर्त में कैसे पहुँचा , बेशक इसका इल्ज़ाम हम हज़ार साल की ग़ुलामी को दें मगर साफ़ दिख रहा है कि श्रम और श्रमिक को नीच मानने की अपनी सोच से ही हम गर्त में पहुँचे । आज की बात करें तो हालात अभी भी कहाँ बदले हैं । हम अपने आसपास ही देख लें । कश्मीर में जितने सैनिक साल भर में शहीद होते हैं उनसे ज़्यादा लोग देश में गटर की सफ़ाई करते हुए हो जाते हैं । उन्हें न्याय देना तो दूर सरकार के पास उनका आँकड़ा तक नहीं है । स्वच्छता अभियान के सरकारी दावों के बीच मलिन बस्तियों में सिर पर मैला ढोते हुए लोग अब भी देखे जा सकते हैं । यह सब देख कर कोफ़्त तो शायद आपको भी होती होगी कि हमारी सेवा में जिन्होंने कोई कमी नहीं रखी वे कमीन और कमियों से भरे हम जज़मान बने घूम रहे हैं ।

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