कई बार देखना

रवि अरोड़ा

चैत माह की दसवीं तारीख़ आ गई । उस दिन भी चैत माह की दसवीं तारीख़ ही थी जब मिर्ज़ा जट्ट को साहिबा के भाइयों ने तीरों से छलनी किया था । पंजाब के गाँव दानाबाद का मिर्ज़ा जट्ट गाँव खान खीवे के रहने वाले अपने मामा वँझल की बेटी साहिबा को उसकी शादी के दिन ही भगा कर ले गया है । सारी दुनिया देखती रही और मिर्ज़ा साहिबा को अपनी घोड़ी बक्की पर बैठा कर ले उड़ा । दरअसल मिर्ज़ा की परवरिश उसके मामा के घर पर ही हुई थी और वहीं बचपन से वह अपनी हमजोली साहिबा से दिलो-जान से अधिक मोहब्बत करता था । साहिबा भी उसकी दीवानी थी मगर उसके पिता ने उसकी शादी कही और तय कर दी । अपनी तीरंदाजी से पूरे मुल्क में मशहूर मिर्ज़ा को मुग़ल बादशाह अकबर ने एक बार ख़ुश होकर हवा से बातें करने वाली घोड़ी बक्की और तीन सौ तीरों के साथ एक कमान ईनाम में दी थी । इन्हीं तीरों से मिर्ज़ा चिड़िया के मुँह से दाना तक गिरा लेता था और वह भी उसे चोट पहुँचाए बिना । ख़ैर मिर्ज़ा दानाबाद के पास पहुँच कर एक पेड़ के नीचे आराम कर रहा था कि पीछा कर रहे साहिबा के भाई पूरा लाव-लश्कर लेकर वहाँ आ गए । साहिबा जानती थी कि यदि लड़ाई हुई तो उसका एक भी भाई मिर्ज़ा के हाथों नहीं बचेगा अतः वह सो रहे मिर्ज़ा के सभी तीर तोड़ देती है और उसकी कमान पेड़ पर छुपा देती है । फिर तो वही हुआ जो होना था यानि साहिबा के भाइयों के हाथों निहत्था मिर्ज़ा मारा गया । हालाँकि मिर्ज़ा के वियोग में साहिबा ने भी अपनी जान दे दी । पंजाब लोक साहित्य की क़िस्सा परम्परा के तहत कही गई प्रेम कथाओं में हीर-रांझा, सोहनी महिवाल , सस्सी-पुन्नो और शीरिन-फरिहाद की कड़ी में मिर्ज़ा साहिबा की यह कथा सबसे अधिक दर्दनाक है और आज भी पंजाब में लोक गायक इस कथा को पूरे मनोयोग से सुनाते हैं ।

अब आप भी कहेंगे कि मैं आज बेवक्त का राग क्यों अलाप रहा हूँ और आज अचानक मिर्ज़ा साहिबा की कहानी आपको क्यों सुना रहा हूँ ? दरअसल मिर्ज़ा का गाँव उस शहर ओकाडा के बेहद क़रीब है जहाँ कभी मेरे पूर्वज कभी रहते थे । अतः एक जुड़ाव महसूस करता हूँ । दूसरा गुरुनानक देव जी की जन्मस्थली ननकाना साहिब भी वहीं है और इत्तेफ़ाक से पंद्रह अप्रेल को उनका भी जन्मदिन माना जाता है । यूँ भी आज चैत की वह तारीख़ है जब मिर्ज़ा अपनी प्रेमिका के छल से मारा गया । और सबसे ख़ास बात यह कि मरहूम निदा फ़ाज़ली साहब का यह पुराना शेर भी आज फिर निगाहों से गुज़रा- हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी , जिसको भी देखना हो कई बार देखना । अब आप ही बताइये कि निदा साहब के इस शेर और मिर्ज़ा साहिबा की कहानी में जुड़ाव है कि नहीं ? बचपन से लेकर जवानी तक एक एक पल साथ रहने के बावजूद मिर्ज़ा यह नहीं जान पाया कि जब कठिन फ़ैसले की घड़ी आएगी तो साहिबा उसका साथ नहीं देगी । वैसे शायद ख़ुद साहिबा भी न जानती हो कि जिसके प्यार में वह पूरे जहान से बैर लेकर घर से भाग आई है , उसे ही वह यूँ निहत्था मरवाने को मजबूर हो जाएगी । अब मनोवैज्ञानिक इस कथा और मानव स्वभाव का ख़ूब पोस्टमार्टम करें मगर इतना तो सबको समझ आता ही है कि मानव स्वभाव कोई उलझी हुई तार है और किसी के बारे में अच्छी अथवा बुरी कोई भी राय बनाने का कोई मायने नहीं है । हम कब क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे यह हमें भी नहीं पता होता ।

आज की बात करूँ तो मुल्क में हो रहे आम चुनावो के मद्देनज़र हमने अपने इर्दगिर्द के तमाम लोगों के बाबत एक ख़ास राय बना ली है । राय इतनी निश्चित है कि उसमें फेरबदल की हम कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ते । नेताओं ने समाज को पूरी तरह बाँट दिया है । अब जिसकी राय हमसे नहीं मिलती उसकी हम शक्ल देखने को भी तैयार नहीं । हमारी नज़र में कोई हरसूरत अपना है तो कोई हरसूरत दुश्मन । साहिबा के बोल के नाम से चर्चित पंजाबी गीत ढोले और टप्पे सुनते हुए मैं आज सोच रहा हूँ कि क्या आज के दौर में राजनीतिक पसंद अथवा नापसंद के आधार पर किसी के बारे में अच्छी अथवा बुरी राय बना लेना ठीक है ? क्या यूँ ही किसी के बारे में कोई राय बना लेना ठीक होता भी है क्या ? यदि राय सटीक हुआ करतीं तो क्या मिर्ज़ा यूँ धोखा खाता और अपनी महबूबा के छल से मारा जाता ? सच कहूँ तो मुझे तो हर तरह से निदा साहब की बात ही जँचती है कि जिसको भी देखना हो कई बार देखना ।

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