एक और ईंट
रवि अरोड़ा
कहते हैं कि दोस्त से अधिक दुश्मन से सीखना चाहिए । पहले दिन से हमसे दुश्मनी मान रहा पाकिस्तान भी हमें बहुत कुछ सिखाने की कूव्वत रखता है । कम से कम वह हमें यह तो सिखा ही रहा है कि किसी भी मुल्क को गहरे गड्ढे में डालने को केवल कट्टरता ही काफ़ी है । कट्टरता के फेर में पड़ कर ही पाकिस्तान आज असफल राष्ट्र बन गया है । हमारे अपने मुल्क में भी अब कट्टरता परवान चढ़ रही है । यही समय है कि हमें रुक कर सोचना चाहिए कि कहीं हम पाकिस्तान की राह पर तो नहीं चल रहे ? क्या वाक़ई कट्टरता की हद तक जातिगत, धार्मिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता का इस मुल्क में कोई स्थान है भी अथवा हम देश की हज़ारों साल की संस्कृति से खिलवाड़ कर रहे हैं ? देश के ताज़ा हालात देख लीजिए। नेताओं की बयानबाज़ी सुन लीजिए ।अख़बार , टीवी अथवा सोशल मीडिया कहीं भी निगाह घुमाइए, क्या कहीं से भी लगता है कि हमें अब अपने सेकुलर होने पर गर्व बचा है ? आज मुल्क में सबसे अधिक जिन्हें गालियाँ पड़ रही हैं क्या वे धर्मनिरपेक्ष लोग नहीं हैं ? सबसे अधिक जिन इतिहास पुरुषों को कोसा जा रहा है क्या वे सेकुलर सोच के लोग ही नहीं थे ?
हम बेशक पाकिस्तान को नफ़रत की हद तक नापसंद करें मगर जाने अनजाने क्या हम भी वही ग़लतियाँ तो नहीं कर रहे जो उसने इतिहास में की हैं ? हालाँकि पाकिस्तान का गठन मुस्लिमों के लिए अलग देश की थ्योरी के तहत हुआ मगर फिर भी पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना अपने देश को कट्टर देश नहीं बनाना चाहते थे । यही कारण था कि उन्होंने पाकिस्तान के लिए शरिया से अलग क़ानून बनवाया। अलग देश का ख़याल जिनके दिमाग़ की उपज थी उन्ही अलामा इक़बाल ने कहा कि हमें इस्लामिक सिद्धांतों पर अक्षरश पालन की बजाय उनकी पुनः व्याख्या करनी चाहिए । इतिहास गवाह है कि जिन्ना और इक़बाल दोनो ही खुले दिमाग़ के थे मगर उनके खुले विचारों का पाकिस्तान ज़मीन पर नहीं उतरा और कट्टरपंथियों के आगे बार बार घुटने ही टेकता चला गया । पहले कट्टरपंथियों के दबाव में भुट्टो ने अल्पसंख्यकों के अधिकार कम किए और फिर बाद में अहमदियों को मुस्लिम मानने से ही इंकार कर दिया । जिया उल हक़ भी उलेमाओं के दबाव में आ गए और अपनी सत्ता पर ख़तरा देख कर कट्टरपंथियों से भी बड़े कट्टर हो गए । उन्ही के शासन में रातों रात महिला टीवी एंकर्स ने सिर ढक कर ख़बरें पढ़ना शुरू किया और सउदी जैसे मुल्कों की निगाह में चढ़ने को खुदा हाफ़िज़ की जगह सरकारी माध्यमों में अल्लाह हाफ़िज़ कहने की प्रथा शुरू करवा दी गई । तब से आज का दिन है और यह मुल्क दिन प्रति दिन कट्टरता की ओर नए डग भर लेता है । जो शासक आता है , स्वयं को पहले वाले से अधिक कट्टर दिखाना उसकी मजबूरी हो जाती है । शुरुआती दौर में पाकिस्तान पूरी तरह से बरेलवियों के हवाले था जो सूफ़ी मत के निकट हैं और कम कट्टर हैं मगर अब देवबंदियों का जलवा दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है । यही वजह है कि हाल ही में वहाँ हुए एक सर्वे पता चला कि पिछले आठ सालों में वहाँ बीस फ़ीसदी कट्टरता बढ़ी है । कट्टरता के पैमाने के रूप में लोगों से शरिया क़ानून के बाबत पूछा गया और लगभग दो तिहाई लोगों ने इसकी वकालत की जबकि आज़ादी के समय इनकी गिनती उँगलियों पर थी और आठ वर्ष पूर्व केवल इक्यावन फ़ीसदी लोगों ने शरिया क़ानून का समर्थन किया था ।
आज देश में एक ख़ास सोच के लोग समाज की सोच पर हावी होने का प्रयास कर रहे हैं । उनका पहला शिकार बुद्धिजीवी बन रहे हैं । एंटीइंटेल्कचुइज़्म का एसा माहौल बना है कि बेढ़ब नेताओं के अतिरिक्त किसी की सुनी ही नहीं जा रही और नेता हैं कि आइडेंटिटी पोलिटिक्स में उलझ कर जब कुछ बोलते हैं समाज में कट्टरता की एक ईंट और लगा देते हैं ।