उधार की नफरत

रवि अरोड़ा
पता नहीं क्यों मुझे शाहरुख खान की शक्ल से ही चिड़ है । यही वजह है कि मैं उसकी फिल्में नहीं देखता । हालांकि यह देख कर अच्छा भी लगता है कि इस मुल्क में कम से कम अभी इतना सौहार्द तो है कि बहुसंख्यक हिंदू जनता एक मुस्लिम अभिनेता को सिर आंखों पर बैठाए हुए है । अन्य मुस्लिम अभिनेताओं, खिलाड़ियों, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी समाज में स्वीकार्यता राहत देती है कि चलो अभी आवा का आवा ही फिरकापरस्त नहीं हुआ और गुण दोष के आधार पर चीजों का मूल्यांकन करता है । मगर क्या ऐसा हमेशा ही रहेगा या अब समाज यू टर्न मार रहा है ? क्या सांप्रदायिकता अब देश प्रेम के चोले में नंगी नहीं घूम रही है और कब कौन इसका शिकार हो जाए पता नहीं ? शाहरुख खान के बेटे के ड्रग्स के मामले में फंसने और क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद शमी की खराब गेंदबाजी की आड़ में खेला गया हिंदू मुस्लिम खेल तो कम से कम इसी ओर इशारा कर रहा है ।

कैसे कैसे खेल खेले जा रहे हैं अब । एक काल्पनिक दुनिया के काल्पनिक नायक के छीछोरे बेटे पर करोड़ों लोगों के करोड़ों घंटे खर्च करवा दिए गए । इस बीच वे तमाम असली मुद्दे कालीन के नीचे छुपा दिए गए जिन पर चर्चा होनी चाहिए थी । कठपुतली मीडिया जगत हड्डी के लालच में हर उस बात को सांप्रदायिक रंग देता दिखा , जिसे यह रंग दिया जा सकता था । सोशल मीडिया पर ट्रेंड सेट करने वालों के हाथ भी जैसे लाटरी लग गई और उन्होंने भी ऐसे नेरेटिव सेट किए जिससे मुल्क की सांप्रदायिक दरार और चौड़ी हो । ये तमाम खुराफातें उन्होंने कीं जिन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी ड्रग की खेप के अडानी पोर्ट पर मिलने पर चूं तक नहीं की । क्या खेल है , हजारों करोड़ की ड्रग्स की बरामदगी गायब और एक ऐसा लड़का सबसे बड़ा ड्रग माफिया जिसके पास न तो ड्रग मिली और न ही उसके सेवन का कोई सबूत मिला ।

पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं । इनमें उत्तर प्रदेश भी है जहां से होकर दिल्ली की गद्दी को रास्ता जाता है । राम मंदिर , शाहबानो केस, सीएजी, गौ रक्षा और लव जेहाद जैसे मुद्दों की तलाश में नेता दर दर भटक रहे हैं । यह दौर मुस्लिम परस्ती अथवा मुस्लिम विरोध की राजनीति का है । हर वह बात मुद्दा है जिसे सांप्रदायिक रंग दिया जा सके । नेता कोई भी हो दल कोई भी हो , सभी नंगई पर उतरे हुए हैं । धर्म निरपेक्षता के एजेंडे वाली पार्टियों के नेता भी मंदिर मंदिर चिल्ला रहे हैं । झूठे नायक और फर्जी खलनायक गढ़े जा रहे हैं । चारों और खेला होबे खेला होबे हो रहा है । इसमें कभी एनबीसी के समीर वानखेड़े जैसे लोग हीरो हो जाते हैं और कभी विलेन । मूर्खों की टोलियां सोशल मीडिया पर धुआं धार बैटिंग कर रही हैं । कमाल यह है कि उन्हें लगता है कि यही सच्ची देश भक्ति है । और उधर गेंद ढूंढ कर लाने का काम उनके जिम्मे आ गया है जो इस खेल की ए बी सी डी भी नहीं जानते ।

सत्य का सिरा कहां है , मुझे नहीं मालूम । मगर इतना मुझे जरूर मालूम है कि जो सिरा दिया जा रहा है वह असली नही है । कोई हमारे दिमागों में घुस कर खेल रहा है । दिखने वाले नायक अथवा खलनायक असली नहीं प्ले स्टेशन फाइव सरीखे हैं । लगता है कि गेम हमारे हाथ में है मगर होता नहीं । होता वही है जो गेम के डवलपर ने सेट किया हुआ है । कमाल है , इस गेम में हम जिसे पीटते हैं वह अपना होता है और जो हमें पटकता है वह भी अजनबी नहीं होता । मोहम्मद शमी को जो गाली हमने दी वह हमारी नहीं थी । आर्यन खान के बाबत कहे गए हमारे अपशब्द भी स्व रचित नहीं थे । फिर कौन आया हमारे दिमागो में जो अपने शब्द दे गया ? शमी और आर्यन जैसों से आपको पहले से ही नफरत है तो मेरी बात आपके लिए नहीं है मगर यदि आपकी यह नफरत ताजा ताजा है तो पता करना कि यह नफरत आपकी अपनी ही है या उधार की है ।

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