इतिहास और साहित्य का कॉकटेल

रवि अरोड़ा
बेशक इतिहासकार पृथ्वी राज चौहान का सच कुछ और बताएं मगर मुझे लगता है कि भारतीय जन मानस यदि चंद्र बरदायी लिखित साहित्यिक कृति पृथ्वी राज रासो को ही इतिहास मानता है तो इसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए । अब जब हमारे अधिकांश इतिहास पुरूष अय्याशी और झूठी शान को आपस में ही लड़े मरे हों और आम इंसानों के हितार्थ अपने शासन में उन्होंने फली भी न फोड़ी हो तो अपने अतीत पर गौरवान्वित होने के लिए मसाला आखिर हम लोग कहां से लायेंगे ? यूं भी वास्तविक इतिहास यदि हमें अपने अतीत के बहुतायत काल पर शर्मिंदा ही करता हो तो साहित्य की शरण लेने के अतिरिक्त हमारे पास और चारा भी क्या बचता है ? अब इसी नज़र से अक्षय कुमार की नई फिल्म सम्राट पृथ्वी राज की कम से कम प्लॉट के मामले में तो बखिया नहीं उधेड़ी जानी चाहिए । हां एक साहित्यिक रचना को वास्तविक इतिहास बता कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जो कोशिशें इस फिल्म के माध्यम से की गई हैं,उसकी तो जितनी मजम्मत की जाए वह कम ही होगी ।

यह कोरी बकवास है कि पृथ्वी राज चौहान पर हमारा इतिहास मौन है और उन्हें जानबूझ कर दो चार लाइनों में निपटाया गया है । हां जबरन अपना स्वर्ण काल गढ़ने को यदि कुछ लोग भाट परंपरा की साहित्यिक रचना पृथ्वी राज रासो को ही एनसीईआरटी की किताबों में बढ़ा चढ़ा कर शामिल करवाना चाहें तो बात और है । इतिहासकार गौरी शंकर ओझा, आचार्य राम चंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे इतिहास और साहित्य के विद्वान विस्तार से कई पुस्तकों में लिख चुके हैं कि पृथ्वी राज रासो और स्वयं पृथ्वी राज चौहान के काल में सदियों का अंतर है । इतिहास की प्रामाणिक पुस्तकों पृथ्वी राज विजय, ताज अल मासिर, तबकाते ए नासिरो, पृथ्वी राज प्रबंध और प्रबंध चिंतामणि के अनुरूप पृथ्वी राज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच आखिरी युद्ध सन 1191 में हुआ और चौहान की हत्या सन 1192 में गौरी ने करवाई थी । स्वयं गौरी साल 1206 में एक कट्टर पंथी मुस्लिम के हाथों 14 साल बाद मारा गया था । इस हिसाब से चौहान द्वारा शब्द भेदी बाण से गौरी की हत्या करने की बात कतई सच साबित नहीं होती । विद्वान मानते हैं कि चंद बरदायी ने पृथ्वी राज रासो सोलहवीं सदी में लिखा और यदि वजह है कि इस काव्य में चंगेज खान और तैमूर लंग जैसे हमलावरों का भी जिक्र है जो चौहान के मारे जाने के कई सौ साल बाद पैदा हुए । रासो में अरबी फारसी के शब्द भी बहुतायत में मिलते हैं जो चौहान के समय तक भारत वर्ष में इस्तेमाल ही नहीं होते थे ।

इस फिल्म के लेखक चंद्र प्रकाश द्विवेदी चौहान को आखिरी हिंदू सम्राट घोषित करते हैं जबकि यह सत्य नहीं है । उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस के प्रोफेसर सिंथिया टैलबोट की किताब द लास्ट हिंदू एंपरर से शायद यह पंक्ति उठाई जबकि इस पुस्तक की ऐतिहासिक मान्यता ही नहीं है । बेशक इसमें कोई दो राय नहीं है कि पृथ्वी राज चौहान एक महान योद्धा थे और विदेशी हमलावर गौरी के हाथों पराजित होने से पूर्व वे उसे एक बार पहले हरा भी चुके थे । अब उनकी इसी वीरता को यदि किसी फिल्म अथवा स्कूलों के पाठ्यक्रम में उचित स्थान दिया जाता है तो इसका स्वागत ही होना चाहिए मगर कविताओं और कहानियों को इतिहास बता कर आपनी सौहार्द बिगाड़ने की कोशिशें हों तो इसका विरोध होना ही चाहिए ।

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