इंतजार और अभी
रवि अरोड़ा
लीजिए चुनाव भी हो गए । बहुत कुछ लेकर गए इस बार चुनाव । हर बार की तरह सामाजिक समरसता ने सर्वाधिक इनकी कीमत चुकाई । भला हो जनता जनार्दन का जिसने नेताओं के भड़काने से भी होश नहीं खोया और कोई बड़ा तमाशा नहीं हुआ , वरना जनसभाओं में क्या क्या नहीं कहा गया इस बार । किसी एक पार्टी अथवा नेता को क्या दोष दें , पूरा आवा का आवा बिगड़ा दिखा । प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी का भी लिहाज नहीं रखा गया । खुद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने भी कौन सी अपने पद की गरिमा का खयाल रखा ? चलिए काम तो खत्म हुआ , अब आगे की सोचें । विचार करें कि इस महंगाई से कैसे निपटना है जो चुनाव खत्म होने के इंतजार में हमारे दरवाजे के बाहर खड़ी है । उन वादों के पूरा होने की उम्मीद लगाएं जो इन चुनावों में सभी दलों ने किए हैं ।
पैट्रोल , डीजल और घरेलू गैस के दाम अब बेतहाशा बढ़ेंगे यह नासमझ से नासमझ को भी पता है । इससे महंगाई बढ़ेगी यह समझने के लिए भी अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं । तो फिर कैसे निपटेंगे हम इससे ? वह भी उस हालत में जब कोरोना से लगे झटके से अभी अर्थव्यवस्था घायल है ? काम धंधे हैं नहीं और अस्सी करोड़ लोग मुफ्त सरकारी अनाज पर पल रहे हैं । चुनाव खत्म होते ही अब सरकारी खैरात भी शर्तिया बंद होगी । शायद यही सोच कर चुनावी समर में उतरे सभी राजनीतिक दलों ने बड़े बड़े वादे किए हैं । पंजाब में तो नकद नारायण मिलने की भी बात है जबकि उत्तर प्रदेश में मुफ्त बिजली , पेंशन , मोबाइल फोन, लैपटॉप और स्कूटी जैसे न जाने क्या क्या वादे किए गए हैं । वैसे हम बहुत उम्मीद लगाएं भी क्यों ? क्या पहली बार चुनावी वादे हमने सुने हैं ?कभी पूरे होते भी हैं ये चुनावी वादे ? क्या आसान होता भी है सभी वादे पूरा करना ? बेशक नाम चारे को थोड़ा बहुत कुछ होगा भी मगर बाकी वादों के लिए तो रास्ता खुला ही है । इस बार भी कह दिया जायेगा कि वे चुनावी जुमले थे और चुनावों में ऐसी बातें करनी ही पड़ती हैं ।
चुनावी परिणाम आने में अभी वक्त है । परिणाम क्या होंगे , यह किसी को नहीं मालूम । हर बार की तरह इस बार भी सभी पूर्वानुमानों को मतदाता धराशाई करेंगे , इतना सबको मालूम है । बात यूपी की करें तो इस बात भाजपा के समक्ष जबरदस्त चुनौती मानी जा रही है । पार्टी के बड़े बड़े नेता मान रहे हैं कि इस बार सत्तर से सौ सीटों का नुकसान भी हो सकता है । ये सभी सीटें समाजवादी पार्टी की झोली में जाने की बातें की जा रही हैं । तो क्या राम मंदिर के शिलान्यास, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के खुलने, मथुरा की बातों, कांवड़ियों पर पुष्प वर्षा, अयोध्या में लाखों दीये, अस्सी बनाम बीस, अब्बा जान, और गर्मी निकालने की बातें बेअसर हो गईं ? क्या सचमुच हमारा लोकतंत्र अब परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है और वह रोजगार, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जमीनी मुद्दों पर वोट करने लगा है ? मणिपुर और गोवा का तो मुझे अनुमान नहीं है मगर पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में इसकी आहत सुनाई दे रही है । बात फिर दोहराने का मन है कि चुनाव परिणाम क्या होंगे , यह किसी को नहीं मालूम । मगर यदि इस बार सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा विजयी नहीं होती अथवा कमजोर बहुमत के साथ सरकार बनाती है तो क्या इसे भारतीय लोकतंत्र की नई करवट के रूप में नहीं देखा जाएगा ? यकीनन यह करवट धार्मिक ध्रुवीकरण से इतर होगी । मगर क्या यह पुनः जातीय समीकरणों के जाल में फंसेगी , यह देखने के लिए हमें अभी पांच साल और इंतजार करना पड़ेगा ।