आँधियाँ

रवि अरोड़ा

बात लगभग पैंतीस साल पुरानी है । एक मित्र नरेंद्र मोहन अस्पताल में भर्ती था । रात के समय हम छः सात लोग उससे मिल कर लौट रहे थे । घुप अँधेरा था और सड़क बीयाबाँ ।चार स्कूटरों पर सवार हम लोग एक साथ ही वापिस आ रहे थे । तीन स्कूटर वापिस शहर लौट आए मगर एक स्कूटर सवार नहीं पहुँचा । काफ़ी देर तक इंतज़ार करते रहे और फिर धीरे धीरे चिंता भी होने लगी । इसी बीच उस साथी स्कूटर सवार के भाई साहब आ गए तो हमने उन्हें बात बताई । उन्होंने झट पूछा कि रास्ते में ख़राब स्कूटर के साथ तो कोई नहीं दिखा ? हमने बताया कि हाँ हिंडन के पास एक आदमी स्कूटर को घसीट कर ले जा तो रहा था । इस पर वो बोले कि फिर चिंता की कोई बात नहीं भाई उसका स्कूटर ठीक कर रहा होगा । उन्होंने हँस कर बताया कि उनके भाई कि यह ख़ास अदा है कि यदि किसी का स्कूटर ख़राब दिख गया तो वह उसे अनदेखा नहीं कर सकता और सारे काम छोड़ कर परेशान की मदद करने लगता है । यह बात सुन कर हैरानी तो हुई मगर फिर भी चिंतित मन से हम लोग पुनः स्कूटर स्टार्ट कर मोहन मगर की और चल दिए । हिंडन के पास पहुँचे तो देखा कि ठीक वैसा ही था जैसा भाई साहब ने अनुमान लगाया था । वह साथी स्कूटर के नीचे लेटा हुए उसे ठीक करने की कोशिश कर रहा था और स्कूटर सवार उसके पास खड़ा सिगरेट पी रहा था ।

अपने आस पास नज़र दौड़ाता हूँ तो आज भी उस साथी जैसे लोग ही चारों ओर दिखाई पड़ते हैं । किसी से पता पूछ लीजिए , सामने वाला आपको गंतव्य तक पहुँचा कर ही दम लेगा । बेशक आज पीड़ित की वीडिओ बनाने वाले भी बहुत विघ्न संतोषी दिखने लगे हैं मगर सड़क दुर्घटना होने पर मदद करने वाले ज़्यादा ही सामने आते हैं । सरकार जितने भी विज्ञापन अखबारो में छपवाए कि अनजान व्यक्ति से लेकर कुछ भी ना खायें मगर ट्रेन में मिल बाँट कर खाने वालों की संख्या कम नहीं हो रही । टाइम पूछना तो जैसे बातचीत शुरू करने का तरीक़ा है । माचिस माँगना तो जैसे आज भी सामाजिकता की पहली निशानी है । बेशक कोई किसी से सिगरेट नहीं माँगता हो मगर माँग कर बीड़ी पीने को तो आज भी बुरा नहीं माना जाता । कहीं भी चार लोग इकट्ठा हुए और आपस में बतियाने लगे । इस मामले में महिलायें पुरुषों से कहीं आगे हैं और एक महिला दूसरी महिला से पहली मुलाक़ात में ही एसे बात करने लगती है जैसे वर्षों की जान पहचान है । हर शहर में भंडारों का चलन है । कोई तीज त्यौहार हो अथवा अपने किसी पूर्वज की बरसी , जरूरतमंदों को भोजन कराना काफ़ी आम ही है । शादी ब्याह में बचा खाना तो हर कोई झुग्गियाँ में बाँटता ही है मगर अब रेस्टोरेंट भी बचे हुए खाने के लिए मुफ़्त स्टॉल लगाने लगे हैं । पुराने कपड़े मुफ़लिसों तक पहुँचाने को नेकी की दीवार जैसे प्रयोग शहर शहर दिखाई पड़ते हैं । अमीर आदमी से ज़्यादा ग़रीबों में मोहब्बत दिखाई पड़ती है । किसी भी रिक्शा वाले से पैसे तय ना कीजिए और रास्ते में ज़रा सा बात कर लीजिए और फिर देखिए । मंज़िल पर पहुँच कर आप जब पूछेंगे कि कितने पैसे दूँ तो वह शर्तिया पलट कर यही कहेगा कि जो मर्ज़ी हो दे दीजिए । अख़बारों में बेशक लिफ़्ट लेकर लूटने की ख़बरें ख़ूब छपें मगर लिफ़्ट लेना और देना आज भी बदस्तूर जारी है । मैं देखता हूँ कि कवि मगर निवासी एक सरदार जी ने कभी कार स्कूटर नहीं ख़रीदा और पिछले तीस सालों से लिफ़्ट लेकर ही बाज़ार आते जाते हैं । कई लोग तो उन्हें देखते ही अपनी कार अथवा स्कूटर रोक देते हैं और बतरस को बैठा लेते हैं । ईद हो अथवा होली दीवाली हिंदू मुस्लिम ख़ूब एक दूसरे के यहाँ जाते हैं और मिठाइयों का आदान प्रदान करते हैं ।

यह सब बातें याद करता हूँ और फिर सोचता हूँ कि हम लोगों की दुनिया कितनी भली है मगर इसकी भलमनसाहत टीवी , अख़बारों , वट्सएप , फ़ेसबुक और ट्वीटर पर क्यों नहीं दिखाई देती ? वहाँ एसी मार काट क्यों मची है ? वहाँ नफ़रत की आँधियाँ क्यों चल रही हैं ? कहीं हमारे वजूद उड़ा तो नहीं ले

जाएँगी ये आँधियाँ ? या सचमुच हम में इतनी कूवत है कि ये आँधियाँ हमारे आगे फिर माथा टेक ही देंगी। येन केन प्रकारेण।

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