अश्वमेघ का घोड़ा

रवि अरोड़ा
साठ साल का हो चुका हूं मैं । इस दौरान देश में हुए तमाम धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक आंदोलन खुली आंखों से देखे हैं । 1971 के युद्ध के दौरान देशवासियों की एकजुटता, आपातकाल और फिर उसके खिलाफ उभरा देशव्यापी आक्रोश , खालिस्तान समर्थक हिंसा और फिर हुआ ब्लू स्टार आपरेशन, मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ युवाओं की नाराजगी, राम मंदिर आंदोलन, लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे का धरना और अब संपन्न हुआ किसान आंदोलन जैसे किसी फिल्म की मानिंद आंखों में कैद है । बेशक इस दौरान हुए छोटे बड़े दंगे, प्रधानमंत्री स्तर के नेताओं की हत्या और न जाने क्या क्या याद है मगर उनकी बात फिर कभी , आज तो बस जन आंदोलनों की बात करनी है । बात भी क्या करनी है , मैं तो बस समीक्षा करना चाहता हूं इन तमाम आंदोलनों के साथ साथ दिल्ली की सीमाओं पर चले एक साल लंबे इस किसान आंदोलन की जो अब पूर्णता को प्राप्त हो चुका है ।

वैसे तो नरेंद्र मोदी जी के अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि उन्होंने क्या सोच कर तो कृषि संबंधी तीन कानून बनाए और फिर क्या सोच कर अब उन्हें वापिस ले लिया । यह भी समझ से परे है कि कल तक जिन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग, पाकिस्तानी, देश द्रोही, गद्दार, आंदोलनजीवी और न जाने क्या क्या कहा और अब उनके समक्ष ऐसे लेट गए हैं कि चाहे जो करवा लो मगर बस हमे मुआफ़ कर दो । खैर, अब आंदोलन खत्म हो गया है और करोड़ों किसानों के साथ उन लोगों की भी बांछे खिल गई हैं जो जिसकी वजह से परेशान थे । इस आंदोलन से किसने क्या पाया और किसने क्या खोया , इसकी समीक्षा अब लंबे अरसे तक चलेगी । वैसे पहली नजर में तो साफ नजर आता यह आंदोलन मोदी सरकार पर बहुत भारी पड़ा है । यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी अहंकारी राजा के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को किसी ने पकड़ कर बंधक बना लिया हो । घोड़ा तो खैर अब वापिस लौटा ही लिया गया साथ ही यह संभावना भी कमजोर हो गई है कि अब राजा पुनः अपना कोई घोड़ा यूं बिना सोचे समझे मैदान में उतरेगा ।

पिछली आधी सदी के जिन आंदोलनों का मैने जिक्र किया है उनसे और इस किसान आंदोलनों की तुलना करें तो साफ नज़र आता है कि उनसे यह काफी अलग था । इसके पीछे न तो कोई राजनीतिक उद्देश्य था और न ही यह सत्ता के मोह में लोगों को भड़का कर अपने पीछे लगाने वाला था । इसके परिणाम स्वरूप कोई राजनीतिक दल और अकेला कोई व्यक्ति भी लाभान्वित नही हुआ । यह तो बस उन किसानों की पीड़ा भर व्यक्त करने वाला साबित हुआ जिन्हें लगता था कि सरकार उनके पेट पर लात मारने को कारपोरेट जगत को आगे ला रहा है । हां इस किसान आंदोलन की तुलना हो सकती है तो केवल मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ हुए युवाओं के आंदोलन से ही हो सकती है । बेशक वह आंदोलन असफल रहा था मगर उसने उन प्रतिभाशाली युवाओं की पीड़ा को आवाज तो दी ही थी जो आरक्षण व्यवस्था का शिकार हो जाते हैं । उस आंदोलन में भी अनेक मासूमों की जानें गईं और यह किसान आंदोलन भी सात सौ प्राणों की आहूति लेकर समाप्त हुआ । वैसे हरजन आंदोलन के अपने खतरे होते हैं और उसमें शिरकत करने वाले लोग भली भांति यह जानते भी हैं । जिन किसानों ने अपने प्राणों की आहूति इस एक साल में दी उन्हें अपने लोगो के बीच अब शहीद सरीखा सम्मान ही मिलेगा। बात मोदी सरकार की करें तो उसके साथ तो वह हुआ है जो पिछले सात साल में नही हुआ था । उसके अश्वमेघ रथ के घोड़े को न केवल पकड़ लिया गया अपितु निशानी के तौर पर घोड़े की नाल भी खोल ली गई हैं । यकीनन अहंकारी राजा के लिए यह एक बड़ी चोट है ।

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