अमरनाथ से लौट कर
रवि अरोड़ा
पिछले हफ़्ते मित्र मंडली के कुछ साथी अमरनाथ यात्रा पर जा रहे थे । जिज्ञासु मना मैं भी साथ हो लिया । पता चला कि सरकारी अस्पताल का मेडिकल सर्टिफ़िकेट ज़रूरी है ताकि सरकार सुनिश्चित कर सके कि आप इस यात्रा के योग्य हैं भी अथवा नहीं । जान-पहचान होने के बावजूद हमें पूरे दो दिन ज़िला अस्पताल के धक्के खाने पड़े और तब जाकर यह सर्टिफ़िकेट हासिल हुआ । हृदय , आँख , हड्डियों के डॉक्टरों ने हमारी सघन जाँच की तथा ख़ून की भी विस्तृत रिपोर्ट हमें हासिल करनी पड़ी मगर पहलगाम पहुँच कर हैरानी तब हुई जब इन तमाम रिपोर्ट्स को किसी ने देखा तक नहीं । हमें हेलीकोप्टर से पंचतरनी जाना था । आगे की यात्रा बेहद ख़तरनाक और थकाऊ थी । ऊँची-नीची बर्फ़ीली और जगह जगह कीचड़ भरी पहाड़ियों पर आगे का सात किलोमीटर का सफ़र हमें पिट्ठुओं से तय करना था । लगता था अब खाई में गए अथवा तब खाई में गए । ख़ैर लगभग चौदह हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर विराजमान बाबा बर्फ़ानी के जैसे-तैसे दर्शन किए और सही सलामत घर भी लौट आए ।
घर पहुँच कर अब विश्लेषण कर रहा हूँ कि इस कठिन यात्रा में उनकी क्या हालत होती होगी जो अपने क़दमों से गुफा तक का सफ़र तय करते हैं । कहीं भू स्खलन हो रहा होता है तो कहीं आतंकी हमले की आशंका से प्रशासन यात्रा रोक देता है । मौसम का कोप अलग । हज़ारों लोग जम्मू से आगे नहीं बढ़ पाते तो इतने ही पहलगाम अथवा बाल टाल में अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते हैं । हज़ारों लोग पंच तरनी में भारी बर्फ़ और बरसात का कोप झेलते हैं तो गुफा पर भी ख़राब मौसम के चलते हज़ारों लोग अटक जाते हैं । शासन-प्रशासन का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात पर ध्यान रहता है कि यात्रियों पर कोई आतंकी हमला ना हो , बस । ताकि उसकी बदनामी ना हो । इसके अतिरिक्त यात्रियों पर क्या बीत रही है , इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं ।बदइंतज़ामी के चलते हर साल दर्जनों यात्री बे मौत मारे जाते हैं । इस बार भी जब अभी तक केवल एक लाख यात्री ही बाबा के दर्शन कर पाए हैं , सत्रह लोग विभिन्न कारणों से जान गँवा चुके हैं ।एक व्यक्ति की हृदयगति रुकने का दृश्य मैंने ख़ुद देखा मगर डॉक्टर तो दूर कहीं एक घूँट पानी का भी इंतज़ाम नहीं । सारी ज़िम्मेदारी धार्मिक अथवा सामाजिक संगठनों के कंधों पर है , जिन्होंने सैंकड़ों की संख्या में पूरे जम्मू-कश्मीर में मुफ़्त भंडारे चला रखे हैं । जो कुछ भंडारे नहीं दे पाते , उन्ही के नाम पर स्थानीय दुकानदार लूटते हैं । जैसे टेंट में रुकने के हज़ार रुपए ,एक बाल्टी पानी पचास रुपए और पाँच रुपए का प्रशाद सौ रुपए का । किसको दर्शन हुए अथवा किसको नहीं , शासन-प्रशासन को इससे कोई लेना देना नहीं । कौन कहाँ फँसा हुआ है , इससे भी उन्हें कोई मतलब नहीं । यात्रियों के क़दमों से बने पूरे मार्ग में घुटने-घुटने तक कीचड़ है और एक इंच भर भी सड़क नहीं , मगर इस ओर किसी का ध्यान नहीं । वैष्णोदेवी की तर्ज़ पर श्राईन बोर्ड तो है मगर उसकी मौजूदगी का कोई चिन्ह नहीं । करोड़ों रुपए रोज़ के चढ़ावे वाले इस तीर्थ स्थान की यह हालत होगी मैंने सोचा भी ना था ।
चौदह हज़ार फ़ुट की ऊँचाई तक सड़क नहीं बन सकती , एसा विचार मेरे मन में भी तब तक आता था , जब तक मैंने सिक्किम स्थित नाथुला पास नहीं देखा था। तिब्बत सीमा पर स्थित इस स्थान पर पहुँचना कुछ इतना ही दुशवारियों से भरा था जैसे अमरनाथ की यात्रा मगर वहीं ऊँची चोटी पर चढ़ कर देखा तो चीन ने इस स्थान तक पहुँचने के लिए जो सड़क बनाई हुई थी वह हमारे राजमार्गों से भी बेहतर नज़र आई । चलिए अमरनाथ तक सड़क ना भी बने , बाक़ी इंतज़ाम तो हों । अमरनाथ की यात्रा सैंकड़ों साल से हो रही है और भक्ति का सैलाब देखिए कि लोग बाग़ नंगे पाँव तक वहाँ जा रहे हैं । एसे में लोगों की नुमाइंदगी करने वाली सरकार की भी तो कुछ ज़िम्मेदारी बनती है मगर उसकी तो शायद यही इच्छा है कि लोगबाग़ अमरनाथ जायें ही नहीं । शायद यही कारण है कि पहले क़दम मेडिकल सर्टिफ़िकेट से बाबा के दर्शन तक प्रकृति से बड़ी बाधा सरकार ही नज़र आती है।