अपने दम पर

रवि अरोड़ा
मेरी चारों बहनें हम दोनों भाइयों से पढ़ाई में ज्यादा होशियार थीं। बेटी ने भी इस मामले में मेरे बेटे को कभी अपने से आगे नहीं निकलने दिया । दशकों से हम सब ऐसी खबरों के अभ्यस्त होते जा रहे हैं कि हाई स्कूल अथवा इंटरमीडिएट में बेटियों ने मारी बाज़ी। धीरे धीरे ही सही मगर अब आम राय सी बनती जा रही है कि पढ़ाई-लिखाई का मतलब है लड़कियां और आवरागर्दी का दूसरा नाम हैं लड़के। यकीनन ऐसी धारणा ठीक नहीं है मगर इस तथ्य से भी कोई कैसे इनकार करे कि पढ़ाई लिखाई के मामले में तो लड़कियां लड़कों पर भारी ही पड़ रही हैं। भारतीय सिविल सर्विसेस के इस साल के परिणाम भी इसकी तस्दीक करते हैं जहां प्रथम चार स्थानों पर लड़कियों का कब्जा रहा । हालांकि 613 लड़कों के मुकाबले 320 लड़कियां ही इस परीक्षा में चुनी गईं मगर उस देश के लिए जहां सैंकड़ों सालों से महिलाओं की राह में हजार कांटे बिखेरे जाते रहे हों वहां यह आंकड़ा भी क्या कम है ?

सिविल सर्विसेस में महिलाओं के लिए मार्ग खुला था साल 1951 में और पहली महिला आईएएस अधिकारी बनी थीं अन्ना राजम मल्होत्रा। उनकी राह में भी तमाम अड़चनें थीं मगर वे आगे बढ़ीं । उनकी देखादेखी धीरे धीरे अन्य महिलाओं का भी यूपीएससी परीक्षा की ओर रुझान पैदा हुआ । साल 1970 आते आते देश में 9 फीसदी महिलाएं आईएएस अधिकारी बन गई थीं । 2020 में यह संख्या बढ़ कर 13 फीसदी हो गईं और वर्तमान में यह आंकड़ा 21 फीसदी का है मगर जिस तरह से अब लगभग एक तिहाई पदों पर महिलाओं का चयन हो रहा है, उससे यह आंकड़ा अब बहुत आगे तक जाने की उम्मीद है। इस उम्मीद की बड़ी वजह यह भी है कि साल 2001 में जहां 47382 महिलाओं ने इस परीक्षा के लिए आवेदन किया था वहीं 2019 आते आते यह आंकड़ा 367085 तक पहुंच गया । साफ़ दिख रहा है कि समाज में तमाम वर्जनाएं टूट रही हैं और आईएएस जैसे पदों पर ही नहीं पुरुषों के लिए आरक्षित मानी जाने वाली फौज जैसे क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी जगह बना रही हैं।

वैसे आपको क्या लगता है, महिलाओं के इन बढ़ते कदमों का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए ? उस समाज को ? जिसने जन्म से पहले अथवा बाद में बच्चियों की हत्या, शिक्षा से वंचित रखने, बाल विवाह, विधवाओं के एकाकी जीवन, दहेज के लिए महिलाओं को जला कर मारने और सदियों तक उत्पीड़न के तमाम प्रावधान किए हुए थे ? जो घूंघट और बुर्के के नाम पर आज भी उन्हें चार दीवारी के भीतर कैद रखना चाहता है ? उस राजनीति को ? जो 75 सालों में भी संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण नहीं दे पाई ? उन धर्मों को ? जो 21वीं सदी में भी अपने धर्म स्थलों पर किसी न किसी बहाने महिलाओं को प्रवेश से वंचित रखते हैं और आज तक महिलाओं को पुजारी अथवा मौलवी जैसा दर्जा तक नहीं दे पाए ? अथवा स्वयं उन महिलाओं को ? जो तमाम बाधाओं को एक कर लांघ रही हैं और धीरे धीरे ही रही मगर बराबरी के अपने लक्ष्य को हासिल करने में जुटी हुई हैं ? बेशक हमें उनकी पदचाप सुनाई नहीं दे रही मगर गौर से देखिए पिछले 75 सालों में असली आज़ादी तो जैसे महिलाओं के खाते में आई है और खास बात यह है कि इसे स्वयं उन्होंने अपने दम पर ही हासिल किया है।

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