सुशांत जैसे न हों शांत

रवि अरोड़ा
फ़िल्म स्टार सुशांत सिंह राजपूत द्वारा आत्महत्या कर लिये जाने की ख़बर से हर कोई हैरान है । स्थानीय पुलिस बता रही है कि सुशांत पिछले छः महीने से डिप्रेशन के शिकार थे । माना भी यही जा रहा है कि इसी अवसाद में उन्होंने अपनी जान ले ली और सदा के लिए शांत हो गये । आख़िर सुशांत डिप्रेशन में क्यों थे ? उनके पास तो धन-दौलत , इज़्ज़त और शोहरत जैसी तमाम वह चीज़ें थीं जो इंसानी चाहतों का चरम हैं । क्या कोरोना काल में पूरी मानव सभ्यता के समक्ष फन फैलाये खड़ी अनिश्चितताओं , डर , अकेलापन, आर्थिक तंगी और भविष्य को लेकर आशंकाओं ने सुशांत की जान ली , यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी । मगर एसा नहीं हुआ होगा यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता । दरअसल चहुँओर हो तो यही रहा है । ढाई महीने तक चले लॉकडाउन ने लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के समक्ष ज़बर्दस्त ख़तरा उत्पन्न कर दिया है । आईसोलेशन , कवारंटीन और सोशल डिसटेंसिंग से लबरेज़ नई जीवन शैली के चलते करोड़ों लोगों के जीवन में अवसाद ने दस्तक दे दी है । विचारणीय है कि दौड़ती भागती ज़िंदगी में जिस तरह से अचानक ब्रेक लगे हैं और सबकुछ ठहर सा गया है , क्या उसे यूँही झेल जाना हरेक के लिए सम्भव है ?
यह तो सबको पहले से पता था कि कोरोना मारेगा कम और डराएगा ज़्यादा। मगर इतना डराएगा यह अनुमान नहीं था । सूचनाओं के ओवरडोज़ ने एसा माहौल बना दिया है कि अच्छे अच्छों की दिमाग़ी सेहत बिगड़ती नज़र आ रही है । लोगबाग़ सारा सारा दिन कोरोना सम्बंधी ख़बरों की ही चर्चा करते हैं । किसी भी बात की अति कर देने के लिए कुख्यात सोशल मीडिया अलग से लोगों के प्राण सुखाये हुए है । तभी तो तमाम तरह के धर्म-कर्म और आध्यात्मिकता के प्रदर्शन के बावजूद हर पाँचवा भारतीय मानसिक रोगों का शिकार हो रहा है । एसोसिएशन आफ इंडियन साईक्रियाट्रिक का सर्वे भी यह दावा करता है कि बीस फ़ीसदी भारतीय किसी न किसी प्रकार के मानसिक रोग का शिकार हैं । उसके अनुसार कोरोना के उपचार हेतु कवारंटीन जैसे उपाय लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक साबित होंगे और शिकार पर इसका असर तीन साल तक रह सकता है । उधर डब्ल्यूएचओ भी कहता है कि भारत में मानसिक रोगियों की संख्या फ़िलहाल नौ करोड़ के आसपास है और कोरोना संकट के चलते साल के आख़िर तक भारत की बीस फ़ीसदी आबादी मानसिक रोगों का शिकार होगी । ज़ाहिर है कि बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं के पीछे डिप्रेशन जैसे ये मानसिक रोग ही अधिक हैं । आख़िरी बार संसद में देश में आत्महत्याओं के वर्ष 2018 के जो आँकड़े दिये गये थे , वह भी चौंकाने वाले थे । सरकार ने माना कि उस साल 1 लाख 34 हज़ार 512 लोगों ने देश में आत्महत्या की थी । उधर नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का कहना है कि पूर्व में सर्वाधिक किसान आत्महत्या करते थे मगर अब बेरोज़गारों ने किसानों को पीछे छोड़ दिया है । साल 2018 में ही 10 हज़ार 936 बेरोज़गारों ने और 10 हज़ार 349 किसानों ने आत्महत्या की थी । ब्यूरो के अनुसार हर दो घंटे में तीन बेरोज़गारों ने आत्महत्या की थी । आज के दौर में महामारी के चलते जब तीस फ़ीसदी से अधिक लोग बेरोज़गार हो गए हैं । लोगों की जमा पूँजी व बचत समाप्त हो चुकी है । कारोबारियों के काम धंधे चौपट हैं , एसे में क्या होगा कल्पना से परे हैं ।
सुशांत जैसों का जाना पीड़ा देता है । उससे भी अधिक पीड़ा देता है उन कारणों का आसपास होना जिनके कारण सुशांत जैसों की मौत होती है । महामारी हमारे वश में नहीं है । उससे जूझने में जो सरकारें हमारी मददगार हो सकती हैं , उन पर भी हमारा कोई ज़ोर नहीं है मगर हमारा मानसिक स्वास्थ्य तो हमारे ही हाथ में है। डर का माहौल है इसलिए डरना स्वभाविक है । अनिश्चितता का वातावरण है इसलिए चिंता भी ग़ैरवाजिब नहीं है । रोज़गार और काम सबका संकट में है । आर्थिक तंगी पूरी दुनिया को सता रही है मगर फिर भी ग़ुब्बारे को बाहर की असीमित हवा से तब तक कोई ख़तरा नहीं जब तक अपने भीतर की ज़रा सी हवा को भी संजोये रखता है । ग़ुब्बारा अपनी इस ज़रा सी हवा की बदौलत ही तो आकाश छू सकता है । तभी तो सुशांत जैसे शांत नहीं होना तो हमें बाहर नहीं वरन अपने भीतर की हवा को देखना है ।

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