मेरी गाय को डंडा क्यों मारा

रवि अरोड़ा

धूप सेकने की ग़रज़ से आज सुबह मैं चाय का प्याला लेकर बालकनी में आ बैठा हूँ । मोहल्ले में आज भी एक गाय बिन बुलाये आ गई है और सड़क घेर कर बनाई गई लोगों की बगिया में घुस रही है । जिस भी पड़ोसी की बगिया के क़ीमती पेड़ पौधों में वह मुँह मारती है , वही उसे दौड़ा लेता है । ज़ाहिर है इस गाय को रोटी किसी घर से नहीं मिली । मेरी माँ जब तक स्वस्थ थी , गाय को रोटी ज़रूर देती थी मगर अब वो चल फिर नहीं सकती । अपनी हमउम्र महिलाओं की तरह मेरी पत्नी की भी शायद गाय में उतनी श्रद्धा नहीं है और यही कारण है कि गाय को रोटी देते मैंने उसे कभी नहीं देखा । अब मैं बैठा हिसाब लगा रहा हूँ कि यह गाय किसकी होगी और अपने खाने-पीने का इंतज़ाम ख़ुद गाय से ही करने को उसने क्यों कहा होगा ? जब शाम को दूध देने के समय वह गाय को घर ले जाएगा तो उसकी भूख के समय एसा क्यों नहीं करता ? इकलौता वही गौ पालक क्यों , देश भर के अधिकांश पशु पालक भी तो यही कर रहे हैं । भैंसे , कुत्ते , बकरी , भेड़ और घोड़े घरों में सुरक्षित बँधे हुए हैं और गाय सड़कों पर मारी मारी घूम रही हैं। उस पर तुर्रा यह है गाय हमारी माता है । इतने में अख़बार आ गया है और उसमें गोवंश के अवशेष मिलने पर भीड़ द्वारा हंगामा करने के कई समाचार दिख रहे हैं । अब नया सवाल दिमाग़ में कौंध रहा है कि क्या हमसे भी अधिक पाखण्डी समाज भी दुनिया में कहीं कोई हो सकता है ?

शायद तीसरी या चौथी क्लास में गाय पर निबंध लिखना सिखाया गया था । वक़्त के साथ उस निबंध में कुछ पंक्तियाँ और जुड़ती गईं । बड़ा होने पर मैं जान पाया कि एक दौर में समाज की समृद्धि गाय की समृद्धि से जुड़ी थी और शायद यही कारण रहा कि ऋषि-मुनियों और हमारे पूर्वजों ने गाय को धर्म से जोड़कर गाय की रक्षा का पाठ हमें पढ़ाया । जिस दौर में गाय रुपये की जगह विनिमय का माध्यम रही हो और आदमी की सम्पत्ति उसकी गायों की संख्या से आँकी जाती हो , उस दौर में गाय का महत्व यूँ भी सर्वोपरि होना ही चाहिये था । अर्थव्यवस्था का आधार गाय का दूध और उसके दूध से बनी चीज़ें हों और खेतीबाड़ी बैलों के बिना सम्भव न हो तो मूर्ख समाज ही होता जो गाय को इतना महत्व न देता । उस पर गाय के गोबर और मूत्र ने भी सोने पर सुहागा लगा रखा हो तो गाय माता से कमतर होती भी कैसे ? मगर अब ? अब जब गाय को हमने अपने जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था से निकाल सा दिया है तब भी हम उसे माता-माता कहने का नाटक क्यों कर रहे हैं ? गाय को घर में रखते नहीं , उसके भोजन का इंतज़ाम हम करते नहीं , बूढ़ी होने पर उसे कसाई को दे देते हैं और बछड़े तो पैदा होते ही कसाई की अमानत हो जाते हैं, एसे में गौ वंश के अवशेष मिलने पर हमारा ख़ूनी ड्रामा करना कहाँ तक जायज़ है ? गाय को अर्थव्यवस्था से जोड़े बिना कब तक हम गाय को केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के नाम पर ख़ुद से जोड़े रख पायेंगे ? बैल उपयोगी रहे नहीं , गाय का दूध भैंस के दूध से सस्ता हो और उज्वला जैसी योजनाओं से उसके गोबर के उपले महत्वहीन हो गए हों और एक रुपए किलो में धक्के खा रहे हों तब गाय कब तक लोगों के दिलों में अपना स्थान बना कर रख पायेगी ?

सवाल लखटकिया है गाय से हमारी भावनायें जुड़ी हैं तो हम उसकी रक्षा क्यों नहीं कर रहे ? क्यों नहीं उसे राष्ट्रीय पशु घोषित करते ? क्यों उसके माँस पर देश भर में प्रतिबंध नहीं लगाते ? गाय की तीस-तीस नस्लें होने के बावजूद कैसे हमारे यहाँ गायों की संख्या उन्हें खा जाने वाले तमाम देशों से कम है ? क्यों दुनिया में हम आज भी तीसरे नम्बर के बीफ़ एक्सपोर्टर बने हुए हैं ? दुनिया भर में हो रहे गोमाँस निर्यात में हमारा हिस्सा सोलह फ़ीसदी कैसे है ? कैसे पिछले साल हमने सोलह लाख टन गोमांस निर्यात कर दिया ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विचारधारा के लोग गाय गाय चिल्लाते हैं और उन्ही मोदी जी के कार्यकाल में गुजरात में माँस निर्यात कैसे दुगना हो गया था ? प्रधानमंत्री बनने के बाद क्यों मोदी जी ने बूचड़खाना खोलने पर सरकारी अनुदान की राशि बढ़ा कर पंद्रह करोड़ कर दी ? गाय हिंदुओं की भावनाओं से जुड़ी है यह ठीक है मगर क्या यह भी सच नहीं कि देश के सबसे बड़े चार माँस निर्यातक हिंदू ही हैं ?

बुरा मानें तो एक बात कहूँ । जब तक हम आगरा में ज़िंदा जला दी गई लड़की के बजाय नसीरुद्दीन शाह जैसों के बयानों पर और पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या की बजाय गोवंश के अवशेषों पर ही बात करते रहेंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे । गाय को हम अर्थव्यवस्था से जोड़े नहीं और यूँ ही फ़र्ज़ी तरीक़े से गाय गाय चिल्लाते रहें तो किसी दिन गाय भी हमसे नाराज़ हो जाएगी तथा जो दुनिया हमें आज एक पाखण्डी समाज के रूप में पहचान रही है हमें किसी दिन पाखण्डी मुल्क भी कहने लगेगी और हम यही दोहराते रहेंगे-मेरी गाय को डंडा क्यों मारा ?

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