बँटाई की ज़मीन पर बैसाखी

रवि अरोड़ा
सुबह से लगातार मिल रहे बधाई संदेशों से पता चला कि आज बैसाखी है । लोगबाग़ सोचते हैं कि पंजाबी हूँ तो बैसाखी मनाता ही होऊँगा सो बधाई के फ़ोन भी कई आ गये । अब लोगों को कैसे बताऊँ कि पंजाबी होना बैसाखी मनाने की शर्त नहीं वरन खेती किसानी से जुड़े होना इसके लिए ज़रूरी है । ये मैं नहीं कह रहा वरन देश के जाने माने सूफ़ी गायक पद्मश्री पूरन चंद वडाली के शब्द हैं । लगभग बीस साल हो गए होंगे इस बात को जब तीन दिन तक लगातार वडाली ब्रदर्स की मेज़बानी का मुझे मौक़ा मिला था और अनेक विषयों पर ढेर सारी बातें हुई थीं । दरअसल मेरे शहर की नामी गिरामी संस्था पंजाबी सोसायटी उन दिनो बैसाखी पर तीन दिवसीय मेला रामलीला मैदान में लगाती थी और पंजाबी संस्कृति से जुड़े दर्जनों बड़े कार्यक्रम उसमें होते थे । एक बार उद्घाटन कार्यक्रम वडाली ब्रदर्स का रखा गया और वडाली ब्रदर्स को हमारा यह आयोजन इतना पसंद आया कि प्रसिद्ध गायक पूरन चंद, उनके पुत्र लखविंदर और भाई प्यारेलाल अपनी पूरी टीम के साथ पूरे तीन दिन तक ग़ाज़ियाबाद में ही जमे रहे । बैसाखी के बाबत अपनी यह राय उस समय ही उन्होंने व्यक्त की थी ।
दरअसल मैं भी आयोजन समीति में था और मेरी फ़रमाइश पर ही वडाली ब्रदर्स को न्यौता गया था अतः उनकी और उनके पूरे दल के ठहरने और खाने पीने के तमाम इंतज़ाम मेरे ही ज़िम्मे थे । उस दिन भी बैसाखी थी जब मैंने उनसे पूछ लिया कि इतना बड़ा त्यौहार है और आप अपने घर से बाहर हैं ? इस पर उन्होंने पंजाबी में कहा कि भाई यह तो जट्टाँ यानि ज़मींदारों का त्यौहार है । तंज में उन्होंने कहा कि हमारे पास जब ज़मीन ही नहीं है , खेती ही नहीं है तो कैसी बैसाखी ? बात ठीक भी लगी फ़सल की कटाई से ही तो जुड़ा है बैसाखी का त्यौहार । कहते भी तो हैं कि फ़सलाँ दी मुक गई राखी , जट्टा आई विसाखी । उस रात खाने पीने का माहौल था तो बड़े भाई पूरन चंद ने वह सब कहा जो उन्हें सार्वजनिक रूप से कभी किसी ने कहते नहीं सुना होगा- भाई हम मिरासी हैं । गाना बजाना हमारा पेशा है । हमारा ज़मीन जायदाद से क्या वास्ता । वैसे बेशक उस समय तक वडाली ब्रदर्स ने फ़िल्मों में गाना शुरू नहीं किया था और उन्हें पद्मश्री जैसे पुरस्कार भी नहीं मिले थे मगर फिर वे थे तो देश के जाने माने संगीतकार , फिर उन्होंने एसा क्यों कहा ? क्यों अपने ही गाँव में उनके पास ज़मीन जायदाद नहीं ?
उसी रात पूरन चंद जी ने बताया था कि पिछली कई पीढ़ी से उनका परिवार लोगों का मनोरंजन करके आजीविका चलाता आया है । परिवार के वे पहले एसे व्यक्ति हैं जिन्होंने मिरासियों की ढपली और साथी कलाकार को मनोरंजन के पीटने वाला पट्टा छोड़ा । अमृतसर के पास गुरु की वडाली गाँव के कारण उन्हें वडाली ब्रदर्स कहा गया और आज उनका गाँव उन्ही के नाम से जाना जाता है । मैंने देखा कि पूरन चंद जी जब बात करते थे तो पंजाब की परम्परा के अनुरूप अपने से बड़ों के सम्मान में उनके छोटे भाई प्यारे लाल और पुत्र लखविंदर बिलकुल चुप रहते थे । आज लखविंदर देश के जाने माने गायक हैं और प्यारेलाल अब इस दुनिया में नहीं रहे मगर बैसाखी का ज़िक्र आते ही मेरी स्मृतियों में वह पूरा वार्तालाप आज ताज़ा सा हो गया। साथ ही यह सवाल भी छोड़ गया कि हमारे मुल्क में आज भी समृद्धि ऊँची जातियों के ही हिस्से क्यों है ? बेशक शहरों की तस्वीर कुछ इससे जुदा है मगर गाँवों में तो एसा ही है । हालाँकि छोटी समझी जाने वाली जातियों को सरकारों ने बहुतायत में ज़मीनों के पट्टे दिए है मगर आमतौर पर तो बँटाई पर ज़मीन लेकर ही वे खेती किसानी कर रहे हैं । जिसकी ज़मीन है वह कुछ करते नहीं और जो दिन रात मेहनत मशक़्क़त करते हैं , उनके पास ज़मीन नहीं । अब बँटाई की ज़मीन पर उगी फ़सल बैसाखी का वह आनंद तो नहीं दे सकती ना जो उसे देना चाहिये ।

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