फ़ुलझड़ियों का ज़माना

रवि अरोड़ा
दिल्ली में सन चौरासी के सिख विरोधी दंगे की बात है । दंगा गख़त्म होने के अगले दिन दिल्ली पुलिस ने लूटा हुआ माल दंगाइयों से ज़ब्त करना शुरू किया था । उसी दिन दिल्ली के सबसे चर्चित अख़बार जनसत्ता में पहले पेज पर काक का एक कार्टून छपा । इस कार्टून में पुलिस का एक दरोग़ा लाठी लिए खड़ा है और उसकी बग़ल में बरामद किये गए टीवी, फ्रिज, रेडियो आदि का ढेर लगा हुआ है । दरोग़ा मूँछ पर ताव देकर कह रहा है- उन्होंने कहा लुटवा दो, लुटवा दिया। उन्होंने कहा पकड़वा दो, पकड़ना दिया । इन दंगों में पुलिस की भूमिका पर हुई तमाम जाँच, बयान और उस दौर के अख़बारों की तमाम ख़बरों को यदि एक तरफ़ रख भी दें तब भी यह इकलौता कार्टून दिल्ली के हालात बताने को काफ़ी था । छत्तीस साल बाद यह कार्टून स्मृतियों में अचानक तब लौट आया जब मैं आज के अख़बारों में कार्टून कोना तलाशने बैठा । हालाँकि रोज़ाना आधा दर्जन अख़बार चाटता हूँ मगर इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि अख़बारों में आजकल कार्टून या ही नहीं छप रहे अथवा उनकी उपस्थिति कम हो गई है । आख़िर एसा हुआ क्या कि कार्टून ग़ायब हो गए ? एक पाठक के तौर पर देखूँ तो यक़ीनन आज भी पाठक सबसे पहले अख़बार में कार्टून देखता है । फिर किस दबाव में सिमट रहा है अख़बारों से कार्टूनों का संसार ?
आज़ादी के बाद से ही पत्र पत्रिकाओं में व्यंगचित्र यानि कार्टून संप्रेषण के धारदार हथियार के रूप में महत्व पाते रहे हैं । के शंकर पिल्लई, आरके लक्ष्मण व मारियो मिरांडा जैसे कार्टूनिस्टों का जलवा अख़बार के सम्पादक से भी अधिक होता था । कुट्टी मेनन, रंगा, इरफ़ान, शेखर गुलेरा, आबिद सूरती, सुधीर तैलंग व काक जैसे कार्टूनिस्ट का भी ख़ूब नाम रहा । उस दौर में यूँ भी अख़बारों में कार्टूनिस्ट को सम्पादक के ही समकक्ष माना जाता था । सभी अख़बारों में कम से कम एक कार्टूनिस्ट तो अवश्य होता था जो अख़बार के ब्राण्ड एम्बेसडर जैसा ही माना जाता था । अख़बार में कम से कम दो कार्टून प्रतिदिन अवश्य छपते थे । एक पहले पेज पर और दूसरा सम्पादकीय पृष्ठ पर । ये कार्टून अक्सर संपादकीयों पर भी भारी पड़ते थे मगर अब अचानक कार्टून का संसार सिमट गया । अख़बारों ने फ़ुल टाइम कार्टूनिस्ट रखने बंद कर दिए हैं और कभी कभी फ़्रीलाँसर से ही कार्टून बनवा लेते हैं । पहले कार्टूनिस्ट बनने के प्रोफ़्शनल कोर्सेस लोग करते थे मगर अब तो जमे जमाए कार्टूनिस्ट भी एनिमेशन में करियर तलाश रहे हैं । अकेले भारत में ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में एसा हो रहा है। अख़बार लोकतंत्र में ही पनपते हैं और अब दुनिया भर में लोकतांत्रिक मूल्य ही संकट में हैं तो अख़बार और उसके कार्टून कोने पर भी संकट है ।
कार्टून का संसार सिमटने की वजह तलाशने बैठें तो साफ़ नज़र आता है कि सरकारों में अब सहिष्णुता की बेहद कमी होती जा रही है । अख़बारों पर मानहानि के सर्वाधिक मुक़दमे कार्टून को लेकर ही हुए। चूँकि आमतौर पर कार्टून तीखे व्यंग होते हैं और राजनीतिक व प्रभावी लोग उसे निजी हमले के रूप में लेते हैं । नतीजा कार्टूनिस्ट दबाव में हैं कि तीखी टिप्पणी न करें । जो दबाव में नहीं आ रहे उन्हें अपनी नौकरी बचानी मुश्किल हो रही है । उधर, दुनिया भर में कार्टूनिस्टों पर हमले भी हो रहे हैं और अनेक जगह उनकी हत्यायें भी हो चुकी हैं । अपने देश में भी जिस प्रकार से पत्रकारों के ख़िलाफ़ आए दिन मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं , उससे भी भय का माहौल है । एक दौर था जब आरके लक्ष्मण पंडित नेहरू को अपने कार्टून में बेहद कमज़ोर और राजीव गांधी को मोटा और गंजा दिखाते थे मगर फिर भी लक्ष्मण से इन नेताओं के बहुत अच्छे सम्बंध थे । राजीव गांधी अक्सर लक्ष्मण से शिकायत करते थे कि अपने कार्टून में आप मुझे गंजा मत दिखाएँ मगर लक्षमन नहीं मानते थे । उनके कार्टून का कामन मैन बड़े बड़े नेताओं की नींद उड़ा देता था । बाल ठाकरे अपने कार्टून में इंदिरा गांधी के क़द से बड़ी उनकी नाक दिखाते थे मगर इंदिरा जी ने कभी शिकायत नहीं की । विचार कीजिये कि क्या आज के दौर में यह सम्भव है ? क्या कोई कार्टूनिस्ट नरेंद्र मोदी अथवा उनके किसी सहयोगी का बेढंगा चित्रण कर सकता है ? जो भी छुटपुट कार्टून आजकल उनके छपते हैं वे कार्टून नहीं बल्कि स्कैच जैसे ही होते हैं । अब जब सत्ता में सत्य के लिये ही टोलरेंस नहीं है तो व्यंग की गुंजाइश कहाँ से हो ? यूँ भी कार्टून एक बम होता है और आज का दौर बम नहीं फ़ुलझड़ियों का है । तो चलिये आप भी मेरी तरह फ़ुलझड़ियों से गुज़ारा कीजिये ।

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