न्याय का शॉर्टकट

रवि अरोड़ा

तीस साल से अधिक समय तक विभिन्न अख़बारों के लिए फ़ील्ड रिपोर्टिंग करने से अब बहुत कुछ साफ़ साफ़ दिखता है । उत्तर प्रदेश में पुलिसिया एनकाउंटर का दौर मेरे देखते ही देखते परवान चढ़ा और फिर दशकों तक ऊधम मचाने के बाद कुछ साल पहले ही मानवाधिकार आयोग व अदालतों की सख़्ती से मंदा पड़ा । दर्जनों दारोग़ाओं, इंस्पेक्टरों और आईपीएस अधिकारियों के कामकाज को भी मैंने नज़दीक से देखा । अच्छी तरह से जानने का अवसर मिला कि आख़िर पुलिस मुठभेड़ कैसे होती हैं । ग़ैर जिले से पैसे देकर वांटिड बदमाशों को ख़रीद कर लाने और फिर किसी ख़ास अफ़सर द्वारा रात के अंधेरे में अपने क्षेत्र में टपका देने के पचासों मामले आज भी आँखों के सामने हैं । मुठभेड़ के बाद मजिस्ट्रेट जाँच और उससे साफ़ बरी होकर तरक़्क़ी पाने वाले दर्जनों पुलिस कर्मियों के नाम आज भी याद हैं । अतः हैदराबाद में डाक्टर महिला के चारों बलात्कारियों के साथ हुई मुठभेड़ वाली उस रात क्या और कैसे हुआ होगा , इसका मैं सहज अनुमान लगा सकता हूँ । आख़िर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारी पुलिस एक ही तरीक़े से ही तो काम करती है । उधर, गिने चुने मामलों को छोड़ दें तो तमाम मुठभेड़ों में जनता पुलिस पर पुष्पवर्षा ही तो करती है । हर मुठभेड़ के बाद ‘बहादुर’ पुलिस कर्मियों का सार्वजनिक अभिनंदन होता है और प्रशस्तिपत्र बँटते हैं । हमारे यहाँ मुठभेड़ का मनोविज्ञान हर बार एक ही तरीक़े से काम करता है । चिर उदास और चहुंओर से निराश आम लोगों को इन मुठभेड़ों से लगता है कि समाज में सब कुछ गड़बड़ नहीं है और कहीं कुछ अच्छा भी हो रहा है । ग़ौर से देखें तो प्रेशर कुकर की भाप उसका ढक्कन ही न उड़ा दे इस लिए निर्माताओं ने बड़ी होशियारी से उसने सेफ़्टी वाल्व लगाया हुआ है । हैदराबाद की इस मुठभेड़ ने एक बार फिर कुकर फटने से बचा लिया । अब आम जनता एक बार फिर सिस्टम पर भरोसा करके चैन की नींद सो सकती है और बलात्कारी भी फिर से अपने काम पर लग सकते हैं । एक बार फिर पुलिस अपने खाने-कमाने पर ध्यान दे सकती है और सत्तावाले भी आराम से मंदिर-मस्जिद, पाकिस्तान और घुसपैठियों की चर्चा कर सकते हैं ।

उसने तो कोई दो राय ही नहीं है कि मानवाधिकार इंसानो का होता है हैवानों का नहीं । महिला डाक्टर के हत्यारों के साथ वही होना चाहिए था जो हुआ मगर क्या ही अच्छा होता कि यह काम क़ानूनी प्रकिया से होता । आख़िर कुछ सोच कर ही तो हमने संवैधानिक व्यवस्था अपनाई थी । फ़िल्मी स्टाइल से लिया गया ‘बदला’ चाहे कितना भी राहत देने वाला लगे मगर उसे मान्यता तो नहीं दी जा सकती । मुठभेड़ में बलात्कारों को मार गिराने वाले पुलिस अफ़सरों को बेशक हम हीरो माने मगर हम इस बात से कैसे मुँह फेरें कि पुलिस के निकम्मेपन से ही एसी वारदातों में इज़ाफ़ा हुआ है । उन्नाव में बलात्कारियों ने ज़मानत पर छूटते ही पीडिता को जला कर मार डाला । उनकी ज़मानत कैसे हुई , क्या पुलिस से यह पूछने का हक़ हम छोड़ दें ? बलात्कार के मामले में किसी नेता अथवा प्रभावी व्यक्ति का नाम आने पर पुलिस हैदराबाद जैसा रूख क्यों नहीं अपनाती , क्या हम यह न पूछें ? चलिए माना पुलिस सत्ता की ग़ुलाम है मगर इन सत्ताधारियों को क्या हुआ है ? वे क्यों इस मुठभेड़ पर सड़क से लेकर संसद तक रीझे घूम रहे हैं ? क्या मान लिया जाये कि बलात्कारियों के ख़िलाफ़ कोई कड़ा क़ानून बनाना उनके वश में नहीं है और इसलिए ही वे ग़ैरक़ानूनी काम के पक्ष में एकजुट हो रहे हैं ? हो सकता है कि जनता के मनोभावों के अनुरूप वे एसा कर रहे हों मगर क्या जनता को राह दिखाना उनका काम नहीं ? क्या देश को भीड़तंत्र में तब्दील हो जाने दें और सभ्य समाज की परिकल्पना से किनारा कर लें ?

पता नहीं देश की न्यायिक व्यवस्था की बदहाली कुर्सियों पर बैठे जिम्मेदार लोगों को नज़र क्यों नहीं आती । निर्भया कांड के आरोपियों को सात साल में भी हम सज़ा नहीं दिला पाये । देश में बलात्कारों की लम्बी चौड़ी फ़ौज है जो ज़मानत पर बाहर है और कभी भी हैदराबाद व उन्नाव जैसा कांड कर सकती है । इन्हीं लोगों के खुली हवा में साँस लेने से हम महिलाओं के लिए दुनिया भर में सबसे असुरक्षित देश बन गए हैं । साफ़ दिख रहा है कि न्याय की कुर्सियों पर बैठने वाले यदि अब भी अपने पर कोई दबाव महसूस नहीं करेंगे तो मुल्क में रूल आफ लॉ के बचे खुचे पैरोकर भी भीड़ में शामिल हो जाएँगे और फिर पूरा मुल्क ही न्याय का शॉर्टकट ढूँढने लगेगा।

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