नम्बरों की कहानी

रवि अरोड़ा

बात कोई तीस पैंतीस साल पुरानी है । उन दिनो मेरा कार्यालय हापुड़ रोड पर था । पड़ोस में एक स्कूटर मकैनिक था झंडा सिंह । मस्त और हँसने हँसाने वाला जवान सिख । एक दिन उसकी दुकान पर शहर के एक नामी गिरामी स्कूल के दो लड़के अपना स्कूटर मरम्मत की उम्मीद से घसीटते हुए लाए । झंडा सिंह ने स्कूटर का मुआयना किया और मज़ाक़ के मूड में कहा कि इसमें करंट ख़त्म हो गया है और एक ख़ाली डिब्बा देकर कहा कि आधा लीटर करंट ले आओ । लड़कों ने डिब्बा हाथ में पकड़ा और फिर पूछा-भईया करंट की दुकान कहाँ है ? इस पर हम लोग ख़ूब हँसे । पूछने पर लड़कों ने बताया कि वे ग्यारहवीं में पढ़ते हैं और दसवीं में दोनो की फ़र्स्ट डिविज़न आई थी । वह दिन है और आज का दिन है । क़सम से फ़र्स्ट डिविज़न वालों से विश्वास ही उठ गया । मगर आज जब सौ में से निनयानवे नम्बर वाले भी कई हो जाते हैं तो पूरी शिक्षा प्रणाली से ही विश्वास हिलता नज़र आता है । मैथ्स और साइंस तो फिर भी समझ आते हैं मगर भला हिंदी और अंग्रेज़ी में कैसे किसी के सौ में से सौ नम्बर आ सकते हैं ? क्या किसी कविता, कहानी अथवा निबंध पर इन बच्चों ने जो लिखा उससे बेहतर कभी लिखा ही नहीं जा सकेगा ? क्या मानवीय सोच के चरम पर हैं ये बच्चे ? यदि नहीं तो क्या भविष्य में यदि किसी अन्य बच्चे ने इनसे भी बेहतर व्याख्या कि तो उसे सौ में से एक सौ दस नम्बर मिलेंगे ?

किसी बुज़ुर्ग की तरह आज अतीत में झाँकने को मन करता है । हमारे दौर में साठ फ़ीसदी अंक भी उन बच्चों के आते थे जो पढ़ाकू कीड़े होते थे । कोई दैवीय बंदे से लगते थे ये बच्चे । शाम को खेलने के लिए भी नहीं निकलते थे और हम जैसे थर्ड या सैकिंड डिविज़न में पास होने वाले ‘गंदे बच्चों‘ को तो हिक़ारत से ही देखते थे । कभी हम लोगों में आ भी गए तो उनकी मम्मियाँ हम जैसों से दूर रहने की सख़्त हिदायत दे देती थीं । हालाँकि वे फ़र्स्ट डिविज़न वाले बाद में अधिकतम बैंकों अथवा इंश्योरेंस कम्पनियों में क्लर्क ही हुए । बेशक इक्का दुक्का इंजीनियर भी बन गए मगर एसे लोगों की तादाद ज़्यादा थी जो आज अपने पिताजी की दुकान पर ग़ल्ला संभाल रहे हैं । शहर और दुनिया उस दौर के थर्ड और सैकिंड डिविज़न वाले ही चलाते नज़र आए । अपने शहर की तमाम बड़ी हस्तियों को मैं जानता हूँ और कुछ को छोड़ कर सब वही हैं , जिन्हें बचपन में नम्बरों की वजह से हिक़ारत से देखा गया । आज के ज़माने में दसवीं और बारहवीं का रिज़ल्ट देख कर हैरानी की इंतहा होती है । पता नहीं आज के बच्चे ज़्यादा समझदार हैं या हमारे दौर के बच्चे बेवक़ूफ़ थे । हमारे ज़माने में तो आम बच्चों के पचास फ़ीसदी तक ही नम्बर आते थे और उसे भी ‘ गुड सैकिंड ‘ बता कर वे फक्र महसूस करते थे । हर विषय में एग्जाम्नर दो-तीन अंक तो ख़राब हैंड राईटिंग के ही काट लेता था । वह शायद क़सम खाकर ही कॉपी चेक करता था कि आधे बच्चे तो फ़ेल करने ही हैं । यही वजह थी पास होने की ख़बर मिलते ही मिठाइयाँ बँट जाती थीं । न कोई पूछता था और न कोई बताता था कि बच्चे के कितने नम्बर आये ।

हमारे ज़माने में यूपी बोर्ड का ही चलन था । आईसीएसई बोर्ड के हालाँकि इक्का दुक्का स्कूल होते थे मगर उन्हें क्रिशचन मिशनरीज का मान कर आम लोग उनसे बचते थे । सीबीएसई का तो एक भी उस स्कूल उस ज़माने में मेरे शहर में नहीं था । यूपी बोर्ड इतना सख़्त माना जाता था कि टॉपर सत्तर फ़ीसदी तक भी नहीं पहुँच पाते थे । आज यूपी बोर्ड भी सीबीएसई की तर्ज़ पर है और वहाँ भी नब्बे-पिचानवे फ़ीसदी अंकों वाले ख़ूब हैं । ज़ाहिर है अब खुल कर नम्बर बाँटने की बयार जो चल रही है और सभी बोर्ड एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में लगे हैं । ठीक है कि हम ख़ूब नम्बर बाँटे मगर इतना तो सोचें कि क्या इतने अधिक नम्बर लाने वाले बच्चों की अपेक्षाएँ भी बहुत ऊँची नहीं होंगी ? सवाल यह है कि हमारे देश में जहाँ रोज़गार के संसाधन व अवसर सीमित हैं , वहाँ इतनी ऊँची अपेक्षाओं और देश-समाज की ज़मीनी हक़ीक़त के बीच सामंजस्य आज का युवा बैठा पाएगा ? नब्बे फ़ीसदी अँक पाकर भी आज के युवा को ग़ल्ले पर बैठते हुए शर्म तो नहीं आएगी ? सच कहूँ तो मुझे लगता है कि हमें एजुकेशन बोर्डस में छिड़ी अंकों की जंग को अब आराम देना चाहिए और चुनावों में मत प्रतिशत न बढ़ने की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए । स्कूल के नम्बरों से यह नम्बर बढ़ना ज़्यादा ज़रूरी है । कहिए आप क्या कहते हैं ?

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