दुकान बंद ही समझिये
रवि अरोड़ा
कई साल बाद जब इस बात की समीक्षा होगी कि भारतीय जनमानस ने धीरे धीरे न्यूज़ चैनल्स से मुँह क्यों मोड़ लिया तो आजकल टीवी पर की जा रही कवरेज की अवश्य चर्चा होगी । बेशक कोरोना काल में टीवी के दर्शक बढ़े हैं मगर जिस तरह की ख़बरें इन दिनो दिखाई जा रही है , उससे बोर होकर लोग बाग़ जल्द ही मनोरंजक चैनल्स खोल लेते हैं । हेडलाइंस की चाह लोगों को लौट लौट ख़बरिया चैनल पर फिर लाती है मगर वहाँ मुर्ग़ों कि लड़ाई जैसी बहसें होती देख लोगबाग़ फिर रिमोट उठा लेते हैं । विभिन्न चैनल्स के स्पेशल प्रोग्राम भी अब अपना असर खोते जा रहे हैं और उनकी बकवास की बजाय लोग अगले दिन सुबह आने वाले अख़बार का इंतज़ार करना अधिक मुनासिब समझते हैं । अब एसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि संकट काल और समय की बेपनाह उपलब्धता से जो करोड़ों लोग न्यूज़ चैनल्स देखने लगे थे, क्या वे हमेशा बने रहेंगे या फिर मुँह मोड़ लेंगे ? यह सवाल भी मौजू हैं कि कहीं अब भारतीय न्यूज़ चैनल्स का डेरा उठने का समय तो नहीं आ गया ?
कोरोना काल में देश दुनिया का हाल जानने के लिये आजकल आम भारतीय ख़ूब टीवी देखता है । चैनल्स की टीआरपी जाँचने वाली संस्था ब्रॉडकास्ट ओडियंस रिसर्च काउंसिल यानि बार्क के अनुसार आजकल लोग पहले के मुक़ाबले एक घंटा अधिक टीवी देख रहे हैं । इस दौरान टीवी के 43 परसेंट दर्शक भी बढ़े हैं । ख़बरिया चैनल्स के दर्शक तो 250 फ़ीसदी तक बढ़ गए हैं । कौन सा चैनल कितनी टीआरपी बटोर रहा है यह आँकड़े भी कम चौंकाने वाला नहीं है मगर इससे इतर अपना मूल सवाल वही है कि क्या ख़बरिया चैनल्स अपने बढ़े दर्शकों को रोक पाएगा या ये दर्शक बरसाती पानी की तरह यूँ ही बह जाएगा ? वैसे इस मामले में मेरा अनुमान तो नकारात्मक ही है ।
पिछले कई दिनो से तमाम न्यूज़ चैनल्स सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के पीछे पड़े हैं , उसे देख कर बेहद कोफ़्त होती है । सुशांत से पहले ये चैनल्स राफ़ेल के गुण गा रहे थे और इस जहाज़ की एसी एसी ख़ूबी गिना रहे थे जो शायद जहाज़ बनाने वाली कम्पनी को भी न पता हो । कोरोना संकट के शुरुआती दिनो में जब लाखों लाख मज़दूर सड़कों पर पैदल चलते नज़र आ रहे थे , उस समय भी ख़बरिया चैनल्स पर तबलीगी जमात सम्बंधी फजूल की बहसें हो रही थीं । सरकारी बदइंतज़ामी से जब महामारी से लोग मरने लगे तब इन टीवी वालों ने चीन से युद्ध छेड़ रखा था । देश में कोरोना के इस समय साढ़े सत्रह लाख मरीज़ सरकार बता रही है । हालाँकि ग़ैरसरकारी सूत्रों के अनुसार यह आँकड़ा इससे कई गुना अधिक है । कोविड से लगभग 38 हज़ार मौतें भी सरकार ने मानी हैं मगर यह आँकड़ा भी ज़मीनी हक़ीक़त से बेहद कम है । पिछले एक सप्ताह में मेरे ही पाँच परिचित शहर में कोरोना से चल बसे मगर ज़िला प्रशासन की रिपोर्ट कहती है कि इस दौरान यहाँ एक भी मौत नहीं हुई । अस्पतालों में इलाज सम्बंधी तमाम मुसीबतें लोगों के सामने पेश आ रही हैं मगर इस पर कोई खोजी रिपोर्ट कहीं नहीं दिखाई जा रही ।
जिस देश में रोज़ाना पचास हज़ार से अधिक लोग कोरोना की चपेट में आ रहे हों और आठ सौ से अधिक लोग प्रतिदिन कोविड से मर रहे हों वहाँ ख़बरी दुनिया एक फ़िल्मी कलाकार की आत्महत्या पर ही अटकी हो तो क्या यह गम्भीर मसला नहीं है ? देश में बाढ़ से कई राज्य त्रस्त हैं । करोड़ों लोगों के घर बार संकट में हैं , सैंकड़ों मौतें हो चुकी हैं मगर छुटपुट समाचारों के अतिरिक्त बाढ़ पर कहीं कोई खोज ख़बर नहीं । अपना सवाल यह है कि यह सब बेवक़ूफ़ियाँ कमअक़्ली में की जा रही हैं या यह सब कुछ किसी के इशारे पर हो रहा है ? यदि यह किसी के इशारे पर हो रहा है तो यक़ीनन इसकी क़ीमत इन ख़बरिया चैनल्स को अपनी विश्वसनीयता के रूप में चुकानी पड़ेगी और यदि यह सब कमअक़्ली का नतीजा है तो इनकी दुकान आज नहीं तो कल बंद ही समझिये ।